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नैतिकता की धरती पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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दीवारें तो रहे बनाते छत हम नहीं बना पाये।
नैतिकता की धरती पर उर्वरता कहाँ सजा पाये?
मन्द हो गयी तुलसी चैरे पर दीपक की मुस्कानें,
गोवध शाले बने, मिटे गौशाले कहाँ बचा पाये?
ईष्र्याओं के वंश आजकल हैं उन्नति पथ पर धावित,
ध्वजा समन्वय की धरती पर कहाँ ठीक लहरा पाये?
जीवन की रागिनी विरस होती ही जाती है हरपल,
कहाँ अभी तक मधुमासों से बढकर हाथ मिला पाये?
पुण्यकर्म-अमरत की कुछ ही बूँदे यदि पा जाये हम,
सुख-सन्तोष-शान्ति के वारिज जीवन मध्य खिला पायें।
अब वाचिक रह गया धर्म आचरणों से उति दूर हुआ-
भौतिक तापों में तप-तपक र तैजस कहाँ पाये?
और क्या मिला प्रगति खोखली के अभिनव सोपनों पर?
अपने मधुर मनुजतावादी सपने ही बिखरा पाये।