नोक-झोंक / प्रतिभा सक्सेना
'पति खा के धतूरा, पी के भंगा, भीख माँगो रहो अध-नंगा,
ऊपर से मचाये हुडदंगा, ये सिरचढी गंगा! '
फुलाये मुँह पारवती!
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा, मनमानी है विकट तरंगा,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना, देख कहनी -अकहनी मत कहना!
समुन्दर को दे आऊँगा!'
'रहे भूत पिशाचन संगा, तन चढा भसम का रंगा,
और ऊपर लपेटे भुजंगा, फिरे है ज्यों मलंगा!'
सोच में है पारवती!
'तू माँस-सुरा से राजी, मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा, पर धार लिया तुझे अंगा!
शंका न कर पारवती! '
'जग पलता पा मेरी भिक्षा, मैं तो योगी हूँ, कोई ना इच्छा,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें, सारी धरती को इनसे बचाये,
भसम गति देही की!
बस तू ही है मेरी भवानी, तू ही तन में में औ' मन में समानी,
फिर काहे को भुलानी भरम में, सारी सृष्टि है तेरी शरण में!
कुढ़े काहे को पारवती!'
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी, और कोई भी साध नहीं मेरी!
जो है जगती का तारनहारा, पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा! '
मगन हुई पारवती