न्याय / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
धूल में लौटते शरीर, क्षत-विक्षत शरीर
अब क्या ढकना, अब क्या धोना
हृदय में धधकती है ज्वाला
टपकते हैं आँसू
क्यों किसी का जीवन
छीन लिया जाता है, जाने-अनजाने
खुद को तो बड़ी पीड़ा होती है
पर दूसरों की लाशों पर
प्रतिशोध की अग्नि चैन से सोती है
क्या कलम को तलवार बना दूँ?
स्याही की जगह गोलियाँ चला दूँ?
वो भी देशवासी था
ये जो बेडियों में जकड़ा है खड़ा
ये भी देशवासी है
क्यो वो अन्याय था जिसको मुक्ति दी गई
या ये न्याय है जिसको फाँसी दी जाएगी
हाथ के बदले हाथ
आँख के बदले आँख
प्रश्न फिर भी वहीं खड़ा है
मेरे दिमाग में अड़ा है
बजा रहा घनघोर नगाड़े
किस ओर जाऊँ
कौन-सा छोर पाऊँ
कि शब्दों से परे देख सकूँ
कंधों पर सलीब उठाना बड़ा भारी है
खुद को उस पर चढ़ाना बड़ी लाचारी है
सत्य बहेगा तभी रक्त बनकर
लहू पुकारेगा चीख-चीखकर
करेगा इशारा अपराधी की तरफ
कलम चलेगी तब हथियार की तरह
त्राहिमाम् त्राहिमाम्
गूँजेगा हाहाकार उनका भी
जिन्होंने दया को नहीं जाना
जिन्होंने कृपा को नहीं माना
जिन्होंने भरोसा नहीं किया प्राकृतिक न्याय पर
खुद कर लिया काम जल्लाद का
गिरंेगे वो भी घुटनों के बल
माँगेंगे भीख अपनी जान की
जैसे माँगी थी उनके शिकार ने
वही तो एक क्षण था जिससे बच जाते
वही तो एक क्षण था जिससे फँस गए
अब गिड़गिड़ाते हैं
इन मरे हुओं को मारने के लिए
क्या कलम चलाऊँ?
इनके लिए तो
एक फूँक ही काफी है
उड़ जाएँगे उससे ही
गगन-गगन धूल की तरह
शिकारी जब शिकार बनता है
धूल-धूसर वो भी खुद को करता है।