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पंख की आवाज़ / रमेश कौशिक

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पंख की आवाज़

इन बुढ़बस शर्तों के अधीन
रहने के लिए
तुम्हें किसने
किया था मजबूर ।
तुम चाहते तो
कहीं भी जा सकते थे
गोवा, काठमांडो, ग्रीनविच गाँव
या कहीं और
जहाँ भी तुम्हारे सींग समा सकते थे
लेकिन यह संभव ही नहीं था
तुम्हारे सींग में फँसा था तरबूज़
या तो सींग को कटना था
या तरबूज़ को फटना था।
तुम नहीं गए तो नहीं गए
लिली और अजगर की शादी
यहाँ होगी ही
और फूलों की मृत्यु भी
तुम यह सब न देखो
कैसे होगा।

तुम्हारे घर के परदे में
सौ सूराख हैं
तब अपने को छिपाने
और दूसरों को
न देखने की बात
फिज़ूल है
(परदे के अंतरालों से
लोक-लोकांतरों के
स्वर्ग में पहुँचा जा सकता है)
तुम अपनी प्रेमिका के
बालों के गद्दे पर सोओगे
तो पड़ोसी पर
निकोटीन का असर होगा ही
और बुढ़ापा
जो तुम्हारे
घर की ओर
आ रहा होगा
उसके घर में
घुस जाएगा।
आजकल
सही बात कहने पर
लोग रोते हैं
वैसे रोना
कोई बुरी बात नहीं
और न हँसना ही
किन्तु
बीच की स्थिति
बड़ी दयनीय है
न जाने क्यों
तथागत पढ़ाते रहे
जीवन भर
मध्य मार्ग
और आनंद
करते रहे हूँ-हाँ
उन्हें बीच में
क्यों नहीं टोका
किन्तु ढाई हज़ार साल
पहले की
या आगे की बातें करना
भूत का कुरता
या भविष्य का पाजामा
आज दोनों ही व्यर्थ हैं।

समय सापेक्ष है अर्थ
भूचाल पहले भी आते थे
मकान गिरते
लोग मरते थे
शासन के लिए
यह महज़
एक खबर होती थी
अभी पिछले दिनों
पेरू में आया
भूचाल
और उसके तुरंत बाद
सेना ने सत्ता
सँभाल ली
शासन-कोश में एक नया अर्थ
जुड़ गया
भटकते रहिए
नए अर्थ की खोज में।

फूल
औरत के जूड़े में नहीं
तो आदमी की दाढ़ी में
मिल जाएँगे
गोलियाँ
बंदूक में नहीं
तो बच्चों की खोपड़ी में होंगी।

इतिहास का घाव
अश्वत्थामा का घाव है
लेसर किरणों से
दूरियाँ कम नहीं हुई
अंतहीन प्रभातों में
प्रार्थनाओं को उठे हाथ ही
आकाश को घायल
करते रहें हैं
अँधेरे की भाषा
पढ़ी नहीं जाती
जब वह हँसता है
नीरवता
       दर्पण-सी
चटक जाती है
उड़ने वाली मछलियों के फ़व्वारे
बंद हो जाते हैं।

वे कितने अच्छे हैं
जो तट बन कर जीते हैं
अतलांत निस्सीम सागर के
हाहाकार से
जिनके कानों के परदे
नहीं फटते हैं।