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पंख फैलाए / कीर्ति चौधरी
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पंख फैलाए
त्वरित गति से अभी जो उड़ गए हैं
मुग्ध विस्मृत कर मुझे
वे अनगिनत जोड़े,
न जाने नाम क्या था,
ग्राम क्या था,
कहाँ के उड़ते यहाँ आए
पंख फैलाए ।
शुभ्र लहरों से भरे आकाश-ऊपर
तैरते
वन-हंस, वन-हंसी,
सुनहरे श्वेत पंखी
या कि भूरे और काले,
अजनबी सब नाम वाले
भूलती हूँ
कौन थे जो उड़े नभ में
उतर प्राणों में समाए ।
यह अजब सौन्दर्य
केवल एक क्षण का
उन्हें शायद :
वे कि जो हैं कर्मरत
चलते सतत
इस यात्रा में रुक
नहीं जो आँख भर कर देख पाए--
धरा पर बिखरा विपुल सौन्दर्य ।
उन्हीं के हित,
विजन पथ,
आकाश रथ
पर धरे अद्भुत वेश,
सुषमा स्वयं आए ।
पंख फैलाए--
त्वरित गति से...