पंचता पर्व / अमरेंद्र
" चुप हुए क्यों, बोलते ही जाओ सब कुछ दूत,
उस समर में धर्म-छल का खेल वह संभूत;
मैं नहीं होऊँगी विचलित, यह वृषाली बोल,
धैर्य ही तो धर्म होता नारी का अनमोल।
" बोलते जाओ सभी कुछ, मैं भी तो लूँ जान,
क्या हुआ, जब अस्त मेरा हो गया दिनमान;
दे गए मेरे लिए भी क्या कोई संदेश?
इस अभागिन के लिए कुछ आखिरी आदेश।
" बिंध गये जब तीर से थे, कौन उनके पास?
दूत बोलो, मौन रह कर मत करो उपहास!
सब सहूँगी, जानती हूँ, कठिन है यह काल,
शीश पर फण काढ़ता दुर्भाग्य का है व्याल।
" पर बहू हूँ अंग की, क्षत्राणी की हूँ लाज,
जो कहो, सच-सच कहोगे; छोड़ सारे व्याज;
क्या बहुत ही कष्ट में थे, क्या दिखे थे दीन?
हो रही होगी बहुत ही, देह श्री से हीन। "
हो गया विचलित बहुत ही दूत लेकिन फिर संभल,
खोल कर रखने लगा मन दूर रख ही वाक्छलµ
कुछ नहीं ऐसा हुआ था, अंगमाता, क्या कहूँ,
शक नहीं कुछ कीजिए जो एक क्षण मैं चुप रहूँ।
" धँस गया था अंगपति के कंठ में जब तीर वह,
ग्रीव पर बहता दिखा था रक्त रेखा की तरह।
आँजलिक था, इसलिए उसका निकलना था कठिन,
पर कहाँ था, एक क्षण भी अंगपति का मुँह मलिन!
" दौड़ कर आए थे केशव ही वहाँ, उनके निकट,
भर लिया था बाँह में, तो वह गए उनसे लिपट,
और फिर कहने लगे, ' बस कुछ समय ही शेष है,
क्लेश मुझको कुछ अगर है, तो इसी का क्लेश है;
' क्या किया अपराध मैंने, जो लड़ा जनपक्ष में?
योजनों तक फैले विस्तृत वन सघन के रक्ष में?
क्या सिंहासन लोक-रक्षा का नहीं संकल्प है?
आप कहिए, अपने मुँह से, अब समय अति अल्प है।
' क्या यही अपराध मेरा, जो लड़ा वन-जन लिए,
राज का यह धर्म होता, मानिए न मानिए.
नृप का क्या धर्म केवल, राज्य जीते, यज्ञ हो?
क्या भला उस देश का हो, जब मुकुट ही अज्ञ हो।
' सोचिए केशव, उजड़ते ही रहे वन-जन अगर,
क्या कभी रुकने को है, कल-आज का ही यह समर?
कर्ण का यह शीश-छेदन; प्रश्न का क्या अंत है?
वन-जनों का जो विरोधी, क्या वही कुलवंत है?
' सौंपिए अब राजगद्दी यह सभी कुछ पार्थ को,
मारिए, जो भी खड़े हैं रक्ष में, उन आर्त को;
' और भी कुछ है निवेदन, मानिए न मानिए,
वंश से जो दीन है, केशव, उन्हें पहचानिए.
' पर्वतों की नींव में हलचल हुई, तो शांत क्या,
रह सकेंगे शिखर कहिए, रह सकेंगे प्रांत क्या?
जाति से, जो हीन उनका जल्द ही उद्धार हो,
उनके कुल में भी कभी भगवान का अवतार हो। '
एक क्षण को चुप हुआ था दूत लेकिन फिर सँभल,
आगे की कहने लगा, ज्यों अपनी जिद् पर हो अटलµ
" मुस्कुराये अंगपति, तो कंठ केशव का भरा,
और आगे कुछ कहेंगे, कुछ नहीं था आसरा।
" याद केशव को दिलाया, कुछ तभी संकेत से,
भर गये थे एक क्षण में पूर्व के ज्यों चेत से।
कंठ से नाराच खींचा, और फिर कहने लगेµ
' कीजिए न देर केशव, प्राण हैं दहने लगे।
' अंग की माटी मिले यह अंग में, उद्योग हो,
आप मेरे साथ हों, कोई वहाँ न लोग हो;
जन्मधात्राी में मिलूँ मैं, पुण्यसंचित फल मिले,
अंश यह जिसका, उसी में अंश अब यह चल मिले।
' जन्म-अचला स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है; काया मिले,
अब उसी में शौर्य की, संकल्प की माया मिले!
रण-विजय से भी बड़ी है, देश की माटी मिले,
रेत-जल में भष्म होकर देह की काठी मिले!
' देह यह जेठौर की भू में मिले, निष्पंद हो,
चेतना जो बह रही मुझमें अभी तक, बंद हो;
क्या मुझे यह हो रहा है, क्या दिखे फिर और कुछ,
पाँव पड़ते हैं वहीं पर जिस जगह न ठौर कुछ।
' चेतना पर छा रही कैसी तो छाया, माधवन,
और उसमें खो रही आभा की माया माधवन;
फिर विगत का स्वप्न वह साकार सम्मुख, माधवन,
श्वेत सारस था सरोवर में खड़ा झुक, माधवन।
' आ गया था एक विषधर तैरता झट, वेग से
पाँव जबड़े में फँसा, तो पंख फट-फट, वेग से;
' पर कहाँ वह उड़ सका था, डूबता-सा दिख रहा,
ज्यों बड़ा-सा शंख जल पर तैरता-सा दिख रहा।
' चाहता अहि था लपेटे और निगले किस तरह,
और सारस ताक में बाहर तो निकले, किस तरह,
व्याल था कि पाँव को जकड़े हुए था, शक्ति भर,
राहु जैसे चाँद को पकड़े हुए था, शक्ति भर।
' रास्ता बचने का जैसे न बचा हो, अब कहीं,
मृत्यु ने ही व्यूह यह जैसे रचा हो, अब कहींे;
चाहता सारस विपद का अंत कोई, जल्द ही
और आखिर जग गई थी शक्ति सोई, जल्द ही।
' चोंच से करने लगा था वार, सारस इस तरह,
सिद्ध आखिर में हुआ वह कर्म पारस इस तरह।
चोट खाया व्याल जल में जा समाया, सिर पटक,
हट गया आतंक जो था पास आया, सिर पटक।
' पर चढ़ा जो विष भला कैसे उतरता? प्रश्न था,
किस तरह से व्योम में जाकर विचरता? प्रश्न था।
झाड़ियों तक वह घिसटता ही गया था, पास में
अब नहीं बचने को शायद कुछ बचा था, पास में।
' इसलिए ही सारी शक्ति को लगा कर, उड़ चला,
बुझ रहा जो तेज था, उसको जगा कर, उड़ चला,
तोड़ते दम पंख को यूं फड़फड़ाया, इस तरह,
उड़ते-उड़ते देश अपना लौट आया, इस तरह।
' पर कहाँ था बल कि नीचे उतर पाता, देश में,
अपनी अचला के सलिल से सँवर पाता, देश में?
' टँग गया नभ में, उड़े थे पंख खुल-खुल, गिर पड़े,
चाँदनी के फूल झरते-से ही बिल्कुल गिर पड़े।
' जो गिरे थे पंख, फिर जिस-जिस जगह पर, उस जगह
खिल गये थे श्वेत चम्पा फूल बन कर, उस जगह,
छा गया था दूर तक चम्पक कुसुम-वन, देश में,
देखना वह चाहता हूँ चंपकानन, देश में। '
दूत का था कंठ कुछ अवरुद्ध होने लग गया,
पर हृदय-आँसू सँभाले अनकहे को कह गयाµ
" अंगदेवी, अब लड़खड़ाए थे वचन अंगेश के,
अप्रतिम थे रूप सारे, प्राण के आवेश के.
" बोलिए अब, क्या कथा वह भी सुनाऊँ, जो अकथ?
अश्रु से भीगे जहाँ सब, रक्त लथपथ, जो विरथ;
क्यों छुपाऊँ, क्या छिपाने से मिलेगा, अंगदेवी,
मन नहीं जितना छिला, उतना छिलेगा, अंगदेवी!
" बंद आँखें खुल गयी थीं अंगपति की, सुधि भरी,
कब कहाँ सीमा है होती बुद्धि-मति की आखिरी!
सामने पीछे खड़ा जो पार्थ देखा कृष्ण के,
कुहनी के बल तलहथी पर शीश टेेके, कुछ झुके.
" मुस्कुराए, फिर कहा, ' अब चाहिए क्या पार्थ को
दे दिया है दान में सब विजय-विजया पार्थ को।
अब तो मैं निर्द्वन्द्व हूँ, निर्भार हूँ मैं, सच कहूँ,
कब झुका, अब भी अटल आकार हूँ मैं, सच कहूँ।
' इसलिए कि कुछ नहीं संचय किया है, यह भी सच,
जो मिला था दान में, सब कुछ दिया है, यह भी सच।
यह धरा शोभित अगर है, दान से है, मानिए,
कर्ण की पहचान इस पहचान से है, मानिए!
' पार्थ, अब क्या चाहते हो; शेष क्या है, इस समय,
तीर टूटे, धनुष टूटा, खंड ज्या है, इस समय;
इस समय मुझसे अलग हैं त्राण के साधन सभी,
पार्थ सोचो, सोचा होगा काल ने भी क्या कभी? '
थी वृषाली मौन तब क्या बोलती भी, उस समय,
था वहाँ पर कौन, जो मन खोलती भी, उस समय,
दूत कहता ही गया था जड़ बना-सा, उस समय,
अंगदेवी, मन-विटप पर दुख-कुहासा, उस समयµ
" सुन सभी हतप्रभ हुए, कोई न बोला, चुप रहे,
तब वहाँ श्रीकृष्ण ने सब कुछ कहा, जो अनकहेµ
' क्या कहूँ मैं, पार्थ का मन मानता ही यह नहीं,
सृष्टि भर में, इस धरा पर आदमी ऐसा कहीं।
' घोर दुख में धर्म का पालन न छोड़े नर कहाँ!
संकटों में हो, वचन से मुँह न मोड़े, नर कहाँ।
देवता तक धर्म से बचते रहे हैं, सत्य है,
काल के अनुरूप मन रचते रहे हैं, सत्य है।
' कर्ण कैसे हो सके अपवाद इसका; झूठ है,
पाँच तत्वों से बने को किस तरह की छूट है?
' देखना यह चाहता है, आज तक देखा न जो,
यह तुम्हारे धर्म पर शंका किए है, हो न हो।
' यह परीक्षा भी परीक्षा घोरतम है, जानता,
पर कठिन क्या धर्म के हित ही कहाँ, मैं मानता।
चाहती क्या नियति है, संदेश क्या है, क्या कहूँ,
इस अघट के पीछे भी उपदेश क्या है, क्या कहूँ।
' क्या तुम्हारे पास है जो दान दोगे कर्ण, अब?
इस विपद में धर्म को सम्मान दोगे, कर्ण, अब!
देखता हूँ सृष्टि की साँसे रुकी हैं, इस समय,
देश की क्या, काल की आँखें झुकी हैं, इस समय। '
यह सुना तो एक क्षण सिहरी वृषाली, देह भर,
प्रश्न क्या पूछा, लगा पीड़ा उठाली, देह भरµ
" फिर कहा क्या नाथ ने, आगे की बोलो, दूत!
आज तो मेरे लिए कुछ भी नहीं है छूत।
" बस मुझे समझो शिला ही, अब कहाँ हूँ देह,
डूबती धरती-नदी, ऊपर बरसता मेह;
पर रुको मत, बोलते ही जाओ सब कुछ, दूत!
क्या किया उसके लिए भी, जो नहीं था हूत? "
सकपकाया दूत पहले, पर कहा, फिर इस तरह
" खींच कर बल-प्राण को बोले तभी वह दुख असहµ
' हित किया, जो धर्म की बातें चलाई, माधवन,
स्वर्ण के उस दंत की अब याद आई, माधवन।
' जो लगा मुँह में किसी के सोच पर यह, कर्ण के,
स्वर्णपुष्पों से सजे जीवन-कमलदह, कर्ण के. "
' झूठ ये सारी ही बातें, बस कथा है, लोक में,
सत्य इससे दूर कोसों। अन्यथा है, लोक में।
' वैसे इसकी इच्छा मुझको कब रही है, माधवन
इससे बढ़ कर देश की अपनी मही है, माधवन!
जन्म फिर होता अगर हो, देश में हो, कामना,
कर्ण दीनों के दलित के भेष में हो, कामना!
लीजिए यह दंत। ' " जैसे ही कहा, मैं क्या कहूँ,
ले लिया पत्थर वहीं पर जो पड़ा; दुख में दहूँ।
तोड़कर अपनी हथेली पर लिया था और फिर,
माधवन के आगे कर अर्पित किया था और फिर।
" घिर गये थे मेघ माधव के नयन में, क्या कहूँ,
बिजलियाँ चमकीं, उठे ठनके गगन में, क्या कहूँ!
क्या कहें देवी, रखा था शीश केशव-वक्ष पर,
और बाँया हाथ वैसे ही पड़ा था अक्ष पर।
" कुछ नहीं देखा किसी ने उस तमस में क्या हुआ,
प्राण के फल को कुतरता काल का बैठा सुआ;
और फिर घन-नाद-सा, घरघर हुआ रथ का विभव,
रुक गये थे, जो जहाँ थे, शोक के संग हर्षरव।
" गूँजता पहरों रहा, आकाश मंे रथ-नाद वह,
अंगमाता, किस तरह से कह सकूँ अवसाद वह।
हो क्षमा, अब और कुछ भी कह सकूँ, संभव नहीं,
इस जगह मैं रुक सकूँ, या रह सकूँ, संभव नहीं। "
चेत में आई वृषाली मन-हृदय को बाँध कर,
दूत से इतना कहा, सब दंश-पीड़ा लाँघ करµ
" कुछ नहीं बोलो, रहा क्या बोलने को, दूत,
क्या छिपा ही रह गया संदेश का आकूत!
" साथ मरने का लिया अधिकार मेरा छीन,
अंगश्री को जोगना है, हो के अब श्रीहीन!
क्या हुआ जो हूँ अभागिन, भाग्य भव का जाग!
मेरे संग में मेरे पति का आज भी अनुराग।
" सुधि रहेगी साथ में तो, क्या डँसेगा क्लेश,
अंगपति की सुध लिए यह जागता है देश।
अब जगेगी सृष्टि सारी, पा नया आलोक,
देखती हूँ छट रहा है व्योम-भू का शोक।
" और उसपर अंगपति का है लिखा आलेख
वायु, अग्नि, सिन्धु, अब आँखें उठा कर देख!
फिर तमिòा को हटाए आ रहा आलोक,
किस तरह माथा पटक कर मर रहा है शोक। "
" द्वेष, छल, विध्वंस का सिमटा हुआ संसार,
मेरे पति सम्मुख मेरे हैं धर्म का ले भार;
निर्बलों मंे नाथ के गूँजेंगे निशि-दिन गान,
क्या हुआ जो पक्ष में न हो सके भगवान।
" देह-मन का धर्म जो, वह कर गए हैं नाथ,
शून्य में दो हाथ के संग हैं करोड़ों हाथ;
मिल रहा है दूर नभ से कुछ मुझे सन्देश,
' प्राण-रक्षा में निरत सब, अब कहाँ विद्वेष!
' नव सृजन, नव कल्पना हित जो हुआ; अनिवार्य,
और अब जो सामने होगा, वही तो आर्य;
सृष्टि को निश्चित मिलेगा कुछ नया आलोक,
कुछ कहाँ अब वाद या प्रतिवाद की है रोक? '
उग रहा है सूर्य पूरब के क्षितिज पर क्रुद्ध,
रौंदता अपने पगों से रक्त-रंजित युद्ध।