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पंचदशसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

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हरिगीतिका -

1.
सब नृपकुमार विवाह कय अयला कुशल ओ छेमसौं
भरि गेल भूपक भवन धन भूषन रतन मनि हेमसौं।
आयल विविध छल भार फल मेवा मधुर चूड़ा दही
रानी सबेरहि ऊठि सब जनि देखि सम्बन्धिक बही॥

2.
लगली परोसय बयन हर्षितहृदय टोल परोस में
नहिं रहल क्यौ बश्चित चतुर्दिस नगरसौं दशकोस में।
आयल जते जे छल ततय याचक स्वदेश-विदेश सौं
सब तृप्त भेल यथेच्छ लहि मिथिलाक दिव्य सनेससौं॥

3.
दशरथ मुदित भेला स्वयं द्विज कैं यथेच्छित दान दय
भूषन रतन धन धान्य ककरौ वस्त्र थानक थान दय।
फल भै सकैछ कदाच जे-सुरवृक्ष ओ सुरधेनु सौं
से भेल पड़ितहि भवन में सीता क चरण क रेनु सौं॥

4.
दिन दिन बखाड़ी धन बढ़य कोसिक अषाढ़ी धारवत्
नहिं घटय दानहुँ सैं कुबेरक दिव्य कोषागारवत्।
मिलि माण्डवी-श्रुतकीर्ति सीता-उर्मिला पुनि प्रेमसौं
निज सासु ससुरक सुश्रुषा लगली करय नित प्रेमसौं॥

5.
पहिने सबहि सौं जानकी ऊठथि सबेरहि भवन में
पतिपद परसि अरुणक किरणमिश्रित सुधामय पवन में।
लय हाथ बाढ़नि अपन घर बहारि अपनहिं लै छली
निपटाय प्रातक कृत्य सखि जनसौं पछाति मिलै छली॥

6.
दासी सबहि कैं रवि उदय सौं पूर्व नित जगबै छली
पुछि कुशल पुनि सबकैं यथोचित काजमें लगबै छली।
नित जाय सासुक निकट माँथ झुकाय गोड़ लगै छली
नहिं प्रान सौं ककरहु कनेकोमात्र थोड़ लगै छली॥

7.
छल जनिक जितपिकरव मधुर मृदु बोल प्रिय वंसीजकाँ
ससुर क भवन-मानसरोवर में लसित हंसी जकाँ।
जे छली सासुक बनलि नयनचकोर वृन्दक चन्द्रमा
सब साधु नारिजनी-भमरनीगनक वारिजनी-समा॥

8.
दासी गनक सर्वस्व ओ देवरजनक माता जकाँ
स्वामिकसिसिर सीरक छली आतप समय छाता जकाँ।
संकट समय धैरज हुनक सद्बुद्धि गूढ़ विचार में
पन्थक छली पाकरि जकाँ दीपक अन्हार-अगार में॥

9.
तृष्णाछुधा-सामक छली निर्मल सुधाधारा जकाँ
रामक सुशोभित वाम, चन्द्रक रोहिणी तारा जकाँ।
रहितहुँ सुहित जन भनसिया अपनहिं सुपाक करै छली
व्यंजन अनेक बनाय अपनहिं हाथ सौं परसै छली॥

10.
पहिने ससुर ओ सासु कैं भोजन सविधि करबै छली
पतिदेव देवर कैं बजाय यथेच्छ भोजन दै छली।
चारूबहिनि मिलि पुनि यथारुचि भै खुसी खाइति छली
दय शेष सेवक कैं, अपन विश्रामघर जाइति छली॥

11.
विश्राम कै किछुकाल पुनि पोथी पुरान पढ़ै छली
किछुकाल टकुरी हाथ लै, यज्ञोपवीत गढ़ै छली।
कौखन कसीदा काढ़ि पुनि मौनी नवीन बुनै छली
पुनि साँझ सासु ससूर सौं उपदेश बात सुनै छली॥

12.
सुनि लेथि जे किछु ताहि वस्तुक पूर्णज्ञान रखै छली
“नहिं व्यर्थकाल कदापि हो” ई नित्य ध्यान रखै छली।
पुनि साँझ देविक वन्दना, दय दीप धूप करै छली
दिन होय भानस जाहिविधि निसि ताहिरूप करै छली॥

13.
किछुकाल सासुक सुश्रुषा सब पैर जाँति करै छली
पुनि पतिक सेवा टहल कै विश्राम राति करै छली।
चारू बहिनि ई रूप दिनचर्या अपन कयने छली
माता पिता क कथा यथावत ध्यान में धयने छली॥

14.
नारिक परम पावन पतिव्रत धर्म मन अवधारि कै
सत् कार्य कय सिखबै छली करतब परोसिनि नारिकै।
चारू बहिनि में श्रेष्ठि अति गुन रूपमें श्री जानकी
जगमें हुनक क्यौ सब गुनक कवि कय सकैछबखानकी?॥

15.
भरि गामघर सब ठाम जन हुनके गुनक चरचा करै
पुतहुक प्रशंसा सूनि भूपक मोद मानस में भरै।
सीखथि जनिक लग आबि गुन सब नारिजन सब टोल सौं
नहि कयल निजवश मन ककर ओ अपनप्रिय मृदु बोलसौं॥

16.
रानी परस्पर पुतहु में बढ़ि चढ़ि सिनेह करै छली
सबहक निरखि गुनरूप-शील-क्रिया प्रमोद भरै छली।
सीताक सुनिसुनि यश अपन अभिमान सब बिसरै छली
बिगड़लि परोसिनि नारि निजनिज दोष तजि सुधरै छली॥

17.
श्रीराम-लछुमन, भरत ओ रिपुहनक सद्व्यवहार सौं
नर-नारि बालक वृद्ध जन छल तुष्ट सबहि प्रकार सौं।
देशक सकल लोकक छला लोचन चकोरक चान-सम
रानी तथा भूपक छला बाहर शरीरी प्रान सम॥

18.
पत्नीक प्रानअधार पंकजनीक नीर जकाँ छला
निज बन्धुवर्गक हेतु जे दोसर शरीर जकाँ छला।
मित्रक अभेद हृदय तथा पुरपरिजनक पोषक छला
आनक गुणक ग्राहक तथा त्यागी सकल दोषक छला॥

19.
दर्शक जनक हेतुक छला आँखिक सुखद अंजन जकाँ
हथियाक हाथिक माँथ बैसल पूबदिस खंजन जकाँ।
सब एक सैं बढ़ि एक शील विवेक विद्या ज्ञान में
नय विनय-गुणपरिपूर्ण जगबिच अग्रणी बलवान में॥

20.
यद्यपि कुमर चारू सभक प्रियपात्र समरूपक छला
सब में तथापि प्रधानतावश राम बढ़ि भूपक छला।
नहिं कष्ट गनि किछु अपन जे परसुखक अभिलाषी छला
सदिखन सहास प्रसन्नमुख प्रियपूर्व-सम्भाषी छला॥

21.
विद्या सुबुद्धि विवेक में सुरपूज्य सौं नहि कम छला
गम्भीरसिन्धु समान उन्नत मेरु पर्वतसम छला।
पृथिवी समान छमा तथा रवितेज तुल्य प्रताप छल
नहिं हर्ष जनिका लाभमें, नहिं हानि में सन्ताप छल॥

22.
युक्तिस्फुरण छल उत्तरोत्तर वेदशास्त्र विचार में
कौशल परम छल सर्वदा लौकिक सकल व्यवहार में।
ब्राह्मण अतिथि सुरमुनिजनक आदर सहित पूजक छला
रक्षक बनल निष्कपट आन्हर लुल्ह ओ नूज क छला॥

23.
निर्धन क धन निर्मति क मति निर्बल समाज क बल छला
हितकुमुद-कानन चान ओ रिपुवनक दावानल छला।
पूर्वहि उदय सौं ऊठि अभिवादन पिता क करै छला
अध्ययन ओ प्रवचन सदा श्रुति-संहिता क करै छला॥

24.
नृपनीति-शास्त्रपुनीत पुनि गुरु लग पढ़ैत लिखै छला
विख्यातयश-निजपूर्वज क आचरित रीति सिखै छला।
निर्वाह हेतु क अपन, जे किछु धन स्वतन्त्र रखै छला
तहु सौं अशन ओ वसन भूखल नग्न कैं नित दै छला॥

25.
दुइ वस्तु मात्र अदेय छल जनिकर विवेक क आरिपर
रिपुदृष्टि दिस निज पीठ ओ दृष्टि आन क नारिपर।
पर द्रव्य ढेंपजकाँ तथा माताजकाँ परदार में
मनमें जनिक छल भावना निस्सारता संसार में॥

26.
उपकार सरिसो भरि परक पर्वत समान जनै छला
अपकार ककरहु सौं कदाचित् होए तौं न गनै छला।
रहितहुँ अमित धन बुद्धि बल जनिका मदक नहिं छूति छल
अनुमत पिता क चलै छला, जहुठाँ अपन सब जूति छल॥

27.
ककरहु समक्ष कदापि नहिं निर्हेतु बात बजै छला
आनक कथा सौं तत्त्व लय निस्सार भाग तजै छला।
सब गुन-सरित-सागर तथा अवगुन-अन्हारक रवि छला
विश्वक सकल शोभा क सार समेटि सिरजल छवि छला॥

कवित्त घनाक्षरी

28.
आश्विनीक चान जकाँ, दही ओ मखान जकाँ
रामयश प्रान जकाँ विश्व में पसरि गेल।
लोक सौं अराति-भय, दस्यु-उतपाति-भय
यातुधान- जाति - भय सबटा ससरि गेल॥

दुर्जन सरारत सौं दैन्यदुख आरत सौं
दूर भेल, भारत सौं पापपुंज टरि गेल।
देखि सीताराम- नीति, जन में उत्पन्न प्रीति
भेल, सब सीखि रीति मानव सुधरि गेल॥

दोहा -

सीताराम क आचरण-वर्णन गुण-यश-पूर्ण।
अम्चरित में भेल ई, सर्ग पंजदश पूर्ण॥
सीताराम क चरित ई, पूर्वभाग सम्पन्न।
पढ़थि सुनथि नर नारि से, सुखयुत रहथि प्रसन्न॥

॥जय मैथिली॥