भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पंछी / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ पंछी गिगनार भलांई
ढोई धरती बिन्यां नहीं।

थारी के औकत बावळा
सूरज चांद तकायत रीख,
जोत लूटै धोरां री धूळां
लुट लुट काया करै हरी,

ऊपर सुपनां नीचै दाणां
क्यां बिन सरसी साच कही ?
उड़ पछी गिगनार भलंाई
ढोई धरती बिन्यां नहीं।

अै बादळ रा चूंखा खेलै
बो सतरंगो रात धणख,
देख मत मन में ललचा,
बूतो थारो तूं ओळख,

कुतिया भाज हिरणियां लारै
हांफै, कांई स्यान् रहीं ?
उड़ पंछी गिगनार भंलाई
ढोई धरती बिन्यां नही।

तूं सुख खोजै जठै कठेई
पण सुख थारै मांय बसै,
कळी बणै ली फुलड़ो जद ही
बीं रो निज रो जी हुळसै,

दीखै घीव घणूं पर थाळी
ई कैबत नै मान सही,
उड़ पंछी गिगनार भलांई
ढोई धरती बिन्यां नहीं।