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पगलिया / संजय आचार्य वरुण

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घूमतौ घूमतौ
निकळ’र आयग्यो हूं
गांव सूं खासौ दूर
धंसतै पगां सूं
दोरौ दोरौ चालतौ
ना जांणें
कांई सोध रह्यो हूँ।
चालतै चालतै
अचाणचक
इण रेत में
म्हारा पग क्यूं थमग्या
म्हैं मुड़’र देख्यौ
खासी दूर
जठै तांई निजर आवै
बठै सूं ले’र
अठै तांई
रेत रै समदर पर
मण्ड्योड़ा दीखै
म्हनै म्हारा पगलिया।
अचाणचक
निजरां ऊपर गई
आभौ है, पण बो
आसमानी नीं है
सोनलिया आभौ
सोनलिया धरती।
इण दोनां रै विचाळै
फगत म्हे, और कोई नीं
दूर दूर
ठेठ तांई दीखै
रेत रौ समदर
मिनख री इच्छावां ज्यूं
फैल्योड़ी रेत।
पूठौ चाल पड़्यौ हूं
कीं सोच’र
पगां रै वै ही
सैनाणां माथै
जका भड्या हा
आवतै वखत।