पड़ाव / संजय मिश्रा 'शौक'
नई सदी में तरक्कियों की
जो होड़ चारों तरफ लगी है
ये होड़ मखलूक के लिए भली है
ये खोज आदम की है कि जिसने
कदम रखे हैं जो चाँद ऊपर
तो चाँद का वो हसीं तसव्वुर
जो शायरों ने हमें सुनाया था मुद्दतों तक
हकीकतन वो फरेब साबित हुआ है जानां
तरक्कियों ने हमें बताया
चिराग अपनी नज़र के नीचे
तमाम जुल्मत को पालता है,
तरक्कियां अब फलक पे अपनी रिहाइशों की तलाश में हैं!
मगर हमारा सवाल ये है,
सभी मसाइल का हल तो पहले तलाश कर लें
जमीं के ऊपर
फलक पे फिर आशियाँ बनाने की सोच लेंगे !
वही हैं खुशियाँ वही हैं गम
तो जनाबे-आदम को आस्मां पर
सुकून कैसे मिलेगा जानां?
ये जो समझने की सोचने की
मिली है कूवत हमें जनम से
यही हमारी तरक्कियों की
तहों में शामिल रही है लेकिन
यही तो सारे फसाद की जड़ बनी हुई है!
हमारे जज्बे ही बंद राहों को खोलते हैं
हमारे जज्बे हमारी राहों को गुम भी करते हैं
जिन्दगी में
यही तो वो खेल है जो
सदियों से चल रहा है जमीं के ऊपर
सभी मसाइल
वसीअ होते रहे हैं अब तक
हमारे मसाइल के हल की कोई
सबील करना पड़ेगी खुद ही !
सुलझ गए फिर जो ये मसाइल
जमीं पे अम्नो-अमान होगा
जमीं बहुत है अदम की खातिर
तरक्कियां सब भली हैं लेकिन
जमीं कम भी नहीं है तो फिर
हमें फलक पर
पनाह लेने की कुछ जरूरत अभी नहीं है !!!