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पतझड़ / सूर्य नारायण
Kavita Kosh से
पतझड़!
धन्य छॅ तों
अपना केॅ भुलैलॅ छँ
सब कुछ लुटैलेॅ छॅ
वसन्त के स्वागत मंे,
जिनगी में पैलेॅ छै
यहेॅ विरासत में।
परेमॅ में बौऐलॅ छॅ
लोरो बहैलेॅ छॅ
झरै छॅ झर झर
गिरै छँ हर हर
धरती पर आवी
धूल हवा फांकी
जहाँ तहाँ, यहाँ वहाँ,
पड़लॅ छॅ मांटी के परतँ में
गिरलँ छँ दुनियाँ के नजरी में
दूर बहुत दूर
होकरा पर कहै छॅ
यहॅ छेकै दस्तूर!
कैन्हें?
कोन स्वार्थ घेरलेॅ छौं?
वसन्त,
उल्टियो केॅ हेरलॅे छौं?
नै देखतौं, नै पूछतौं
सब दावॅ के यार छै
कामॅ सें दरकार छै
दिलॅ में सोचॅ
विचारॅ केॅ तौलॅ
भटकतेॅ रहबेॅ
सिसकतेॅ रहबेॅ
तब तक जब तक
फेरू से नै विचारभौ
सड़लॅ परंपरा पर
मरलॅ मान्यता परेॅ