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पतझर / रैनेर मरिया रिल्के
Kavita Kosh से
कुछ यूँ झर रही हैं पत्तियाँ,
मानो गिर रहीं हों बहुत ऊँचाई से
वहाँ आसमान में
मानो मुरझा गए हों बगीचे भी
ऐसे झर रही है हर पत्ती
मानो कह रही हो ‘न’
आज की रात
अकेलेपन से जूझती ज़मीन भी
बोझल मन लिए
विलग हो रही है सितारों से
इधर ढल रहा है यह हाथ
और उधर देखो
उस दूसरे हाथ को भी
झर रहे हैं हम सभी हर पल
लेकिन कोई तो है
शान्त हैं
जिसकी हथेलियाँ
समूचे पतझर को
सम्हालते हुए भी
अँग्रेज़ी से अनुवाद -- नीता पोरवाल