भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पत्तियों जैसा झरा / अनूप अशेष

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूखी हुई पत्तियों जैसा
झरा अकेला मन।
बच्चों की कापी के जैसा
भरा अकेला मन।

कुछ बच्चे
कुछ पेड़ नीम के
इनमें चिपकी-सी कुछ यादें
कुछ कंचे
कुछ प्रेम-पत्र
फिर से मुझमें कोई दुहरादे।

हिरनों के जंगल जैसा
चरा अकेला मन।

कुछ झरने
कुछ प्यास हवा की
कभी-कभी होठों छितराएँ,
हर घाटी
हर आदिम-बस्ती
अपनी धूप यहाँ लौटाए।

पंख कटे पांखी के जैसा
मरा अकेला मन।