पत्थर / प्रदीप शर्मा
ओ भारत के कर्णधार !
ओ महाप्राण
तुम हो पाषाण !
द्रवित नहीं जो हृदय हुए
सुन कर जन गण की करुण पुकार
यह क्षुधाप्रहार
और हाहाकार
वे जीव नहीं, चैतन्य नहीं
निर्जीव हैं वे, वे जीवित शव
सुनते ताण्डव नर्तन का रव
जैसे हो कोई अनहद स्वर
क्षुधाग्रस्त का गिरा जो रक्त
लील रहे लोलुप अधर !
नहीं नहीं ये नहीं हैं नर!
तुम हो पाषाण
तुम हो प्रस्तर!
तुम मानव हो?
और मोम न हुए
इस महाकाल के दर्शन कर !
कहां गया वह शारद स्वर
क्यों बोलना हुआ दुष्कर
क्या भय खाते हो शासन से
या खुश झूठे आश्वासन से ?
मिस्र में मर कर ममियॉं ब्नती थीं
तुम जीवित ही बन गये यहां
वाह क्या प्रगति कर गया जहां !
जाग मानव जाग
तू ब्न अभय
क्रान्ति का विलय
कर ले तू अपने जीवन में
कि एक ज्योत जगे
और यही लगे
पत्थर निर्जीव नहीं
रगड़ खा कर
आग उगलने लगता है।