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पत्थर / शिवप्रसाद जोशी

वह एक रंग है
जिसमें पड़े हैं सारे के सारे रंग
उसके भीतर गुज़रती रहती है नदी
सारी इच्छाएँ सारी वासनाएँ सारी उम्मीदें और यातनाएँ
उसके किनारों पर पछाड़े खाती रहती हैं
जमी रहती हैं बरसों से काई की तरह

आवाज़ है
जो चिपक गई है सदा-सदा के लिए उसके ठोसपन में
वक़्त उसी में भीग कर कड़ा हुआ है
दिन और साल और उम्र उसकी दरारों में पड़े हैं
बेसुध...

उसी में सारा हिसाब बंद है इतिहास का
क्रूरताओं का भी
उसी में एक कोने में दुबका बैठा है सुख
उस की त्वचा के अंधेरे नम कोनों में ठिठुरता हुआ
दुख उसकी छाती पर एक रंग की तरह लोटता रहता है
अवसाद एक पानी है और उसका रंग मिल गया है वहाँ

यह रात है
पड़ा हुआ उसके तल में है
एक पत्थर