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पत्थरों पर पड़े निशान / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
वक़्त का झरना
झमाझम गिरता है तो गिरता रहे
पत्थरों पर पड़े निशान हटाने में
झरने को सदियों का इंतज़ार करना होगा
झरती इन बूँदों से
बंसरी की दर्द भरी धुन नही निकलती
निकलती है तो सिर्फ़
मन के दरख़्त पर पड़ती
धारदार कुल्हाड़ी से संघात करती
ठक ठक की ध्वनि!
और घबरा कर गिरने लगते हैं
एक-एक कर
हथेलियों में सहेजे हुए सूरज
सितारे और छिपा कर रखे सारे ख्वाब!
इन पत्थरों पर दिखते गहरे निशान
मामूली चोटों से नही उभरे
ये नासूर है
सिर ढांपे पल्लू के नीचे फैल गए घावों के
झुकी आँखों
मुँह में जुबां न होने की सजाएँ हैं ये निशान
जो मामूली नही
खुद को लगाई गयी चाबुकों से उभरे हैं
अफ़सोस करने से भी
कभी माज़ी बदलते हैं क्या?