भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्थरों में / हेमन्त कुकरेती
Kavita Kosh से
पत्थर में
पानी था
पेड़ों की स्मृति में पत्ते
घोंसलों की गन्ध में
चहचहा रहे थे
चाँद था
जो अपनी खिड़की से
हिला रहा था हाथ
चीड़ों पर
शहद की तरह लिपटा था
उजाला
सूरज नहा-धोकर
बैठा था
छुट्टी वाले दिन
चिड़ियों को
फुर्सत नहीं थी
रुककर
धूप से बात करने की
पत्थरों में केवल
होती है आग
किसने कहा यह सबसे पहले
उसे डाँटना मत
वह भी पत्थरों में ही
मिलेगा
उनके पुरखों की तरह...