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पत्थरों से लड़ी मैं / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
धड़कने बदलतीं करवटें आजकल।
चाँद के भाल पर सलवटें आजकल।
यों तो अपना था वो मेरा, दोस्तों!
महफिलों की जुबाँ नफ़रतें आजकल।
आँखें हैं मौन , दिल भी खामोश है।
देखो सदमें में गुरबतें आजकल।
जिसे देखो वह रंग-रलियों में है।
अब ना राँझे- सी उल्फ़तें आजकल।
पत्थरों से लड़ी मैं नदी की तरह।
उसकी सागर- सी हरक़तें आजकल।
बस समंदर ही था इक राहे- सफ़र।
नदी से उसे मोहब्बतें आजकल।