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पत्र का गिरना, हहरना / अमरेन्द्र

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पत्र का गिरना, हहरना,
किस वियोगी का विचरना !

वायु का शीतल रुदन यह
इस जनम का गीत लगता,
वेणुवन में बाँसुरी का
गूंजता संगीत लगता;
रूप की लुटती हुई छवि
चित्त चंचल आज इस्थिर,
भर रहे हैं शांति मुझमें
पत्तियों के शोर झिर-झिर!
इस तरह क्यों भागते पल;
देख लूँ जीभर, ठहरना !

यह तुम्हारा रूप कैसा !
हो रही हैं बन्द आँखें,
मूक सारे शब्द मेरे,
मनन की है मौन पाँखें,
बस श्रवण ही शेष इस्थिर
नाद अनहद बज रहा है,
किस मिलन में यह वियोगी
लोक ऐसा सज रहा है !
कह रहा है कौन चुपके
यह नई रितु का सँवरना ।