पथ पर निर्झर-रूप बहे।
प्रलयंकर पीड़ाएँ बोलीं, 'तेरी प्रणय-क्रियाएँ हो लीं।'
किस उत्सर्ग-भरे सुख से मैं ने उन के आघात सहे!
मैं ही नहीं, अखिल जग ही तो, रहा देखता उसे, स्तिमित हो!
सृष्टि विवश बह गयी वहाँ तो गति-रोधन की कौन कहे!
प्रणय? प्राण तो मर कर जागे! क्षण में लुट कर उस के आगे।
अनुभूति-द्युति-अनुगम-इच्छुक गिरते-पड़ते प्राण रहे!
पथ पर निर्झर-रूप बहे!
डलहौजी, जुलाई, 1934