भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पन भरनी / पतझड़ / श्रीउमेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घैलोॅ-बाल्टी-रस्सी लेलेॅ यै ठाँ हमरा कुइयॉ पर।
झबिया, लखिया, पबिया ऐली पानी भरलक गाछी तर॥
माथा पर छै केस, केस पर अँचरा, अँचरा पर गेडुली।
गेडलीपर घैलोॅ छै, घैला पर लोढा राखी चलली॥
काँखी तर छै दोसरोॅ धैलोॅ, हाथोॅ में बाल्टी रस्सी।
छै मस्तानी चाल सभै के, वतियाबैहस्सी-हस्सी॥
माथा के धैलोॅ स्वतंत्र छै, नै हीलै-नै डोलै छै।
कत्तेॅ कत्तेॅ बात करैछेॅ, मुसकी-मुसकी बालै छै।
जोगी जेना ब्रह्म-चिन्तना करि दुनियाँ के साथ रहेॅ।
राजा जनक समान रही केॅ; सीत-धूप बरसात सहूं॥
तेहिनें ई बनभरनी देखोॅ राखी केॅ घला पर ध्यान।
बात करै छेॅ, राह चलै छेॅ राखीं केॅ वें आपनोॅ सान॥