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पनघट पनघट छानलोॅ हो / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
छै गरमी के कोख में बरखा
बात कहै छी जानलोॅ हो,
खून पसीना बनी बहै छै
पनघट पनघट छानलोॅ हो।
गली गली के हर चौखट पर
प्रेतें खाड़ोॅ नेतै छै,
मेहनत के सौसे फल पर
कारीख चूना पोतै छै।
हाय हाय करते-करते छै
मोॅन ई बेकल कानलोॅ हो।
ऋतु संधि ते नया-नया छै
जीवन के ही क्रम छेकै,
खड़ा नेतोॅ दै छै आबी
समझी के जानै सीखै।
पर्वत पर्वत आगिन दिलकै
जंगल जंगल छानलोॅ हो।
सागर मद में चूर छै हरदम
रतन छिपैने छै भरपूर,
जीवन रस के उपछी, निगली
काम करै ले ई मशहूर।
ताप जलन पर शीतल जल के
क्रम छै हरदम बान्हलोॅ हो।