पनरमोॅ सर्ग / कैकसी / कनक लाल चौधरी 'कणीक'
पनरमोॅ सर्ग
तिनटा अन्तरंग रावण के जें लाबै सम्वाद
शुक, सारन मारीचि तीनोॅ टा रावण होबै याद
शुक सारण रहै अति विश्वासी करै भेदिया काम
धरती आरो पाताल जाय वें टोहै खबर तमाम
लंका के अन्दर मरीचि घूमि घर-घ्र टोही मारै
सभटा छिपलोॅ बात जे भेलै रावण आगू उघारै
खरदूषण, त्रिशिरा विभीषणोॅ के गतिविधि केॅ जानै
के की करै, मनें की राखै, बात भेदियॉ लानै
बहुत काल वें राज सम्हारै कैक ठियाँ हौ गेलै
खतरा नैं देखी कन्हौं सें फिन निश्चिन्त हौ भेलै
आपनोॅ बचपन याद करै गुरु-पिता विश्रवा आश्रम
कत्तेॅ श्रम करि पितां सिखाबै सीखै में कत्तेॅ श्रम
फेनूं कैकसी माय केकेनां पिता के संग छोड़ाबै
दैव संस्कृति केॅ छोड़ाय वें रक्ष संस्कृति लाबै
तब से माय ही गुरु पिता आरो पथ दर्शक होलै
ओकरे कृपा सें आयतलक मंगलमय जीवन भेलै
हरदम ऊ छाया बनि केॅ रस्ता हमरा बतलाबै
ओकरा बिन हमरोॅ जिनगी में ग्रह गोचर मड़राबै
पता हनीं की कारण भैय्यां हमरा दूर भगाबै
हमरे बेआ मेघनाद लग जाय नगीची पाबै
मन्दोदरीं तेॅ ठीक कहै छै पिता-पूत दोऊ एक
फिन मन हमरोॅ उचटै कैन्हें, कैन्हैं छोड़ै विवेक
माय भुलै के एक्के रस्ता काम सहारा पाबौं
सुरा सुन्दरी संगत करि-करि माय बिछोह के दाबौं
फिन रावण के सम्मुख नाँचै वेदवती अभिशाप
रंभा साथें बलत्कार पर नलकूबर के शाप
मन्दोदरी के साथें रावण व्यर्थ में समय गुजारै
दू जवान बेटा-पुतहू के कारण काम केॅ टारै
बाँकी धान्यमालिनी हरदम वैद्य शरण में जाबै
यही लेलि रावण निज घर में काम पिपासा दाबै
किन्तु पिपासा दबला सें ऊ रहि-रहि केॅ उभरै
सहस्त्रायु शिव वर पावी फिन युवा अंग केॅ अखरै
ये लेली सुक सारण सें बाला सुन्दरि मंगबाबै
मधु सेवन करि रावण फिन राजी सें प्यास बुझाबै
दिन प्रतिदिन जबेॅ इ लीला मन्दोदरि आँखें पावै
तेॅ इक दिन माय कैकसी आगू पूत के हाल बताबै
बोलै मन्दोदरि, माय, तोरे कारण अधोगत भेलै
तोरे प्यर के बँटवारा सें, पति दिग्भ्रमित होलै
पति आरो पुत्र दोनों प्यारोॅ छै, यै लेली चुप रहलां
मगर जबेॅ हौ कहै लेॅ पड़लै, तभै तोरा सें कहलां
कोय उपाय ऐसनों क्हौ सासु, दोन्हूं स्नेह केॅ पाबेॅ
पोता सें जेतनैं नगीची ओतनै बेट्हौ पेॅ छाबेॅ
मन्दोदरी के बात सुनी कैकसी के मन अकुलाबै
बोलै पुत्र त्रिलोकपति केॅ आबेॅ के समझाबै?
जब तक हमरोॅ अरूरत रहलै, प्यार सें मार्ग देखावौं
आवेॅ कोॅन जरूरत हमरोॅ, सब अरमान टा पावौं
असली शत्रु सुरपति छेलै, जै लेली प्रण करलां
मेघनाद के हाथें प्रण केॅ पूरा होते देखलां
जब तक राजभवन में रहबै मेघनाद प्रिय लगतै
ऊ देखी केॅ पुत्र दशानन के मन बहुत अखरतै
मोह के मायाजाल छै ऐन्हों हरदम करवट बदलै
पुत्र पेॅ कखनूं पति पेॅ कखनूं पोता पर फिन अड़लै
पति तेॅ कब केॅ त्यागी चुकलां पुत्र केॅ आगू बढ़ैलां
पुत्र वियोग में पोता साथै आपनोॅ मन बहलैलां
बारोॅ सालोॅ के युद्धें नें पोता मोह में धकेलै
पुत्र वापसी पर भी मोहें खेल वही टा खेलै
यै लेली अब राजभवन ही हमरा त्यागै पड़तै
पोता पुत्र के मोह पास तजि मनमां आगू बढ़तै
बहुत काल धरि राजमाय के पद पर रही कें टिकलां
आपनोॅ बुद्धि ज्ञान बलोॅ पर दशाननोॅ केॅ चलैलां
आबेॅ हौ दिन आबी गेलै राज भाय पद त्यागौं
बचलोॅ जिनगी असुर भवानी सेवा करै में लागौॅ
ई कहि कैकसी राज माय के स्वर्ण मुकट केॅ लाबै
पोता पुत्र के सम्मुख ही मन्दोदरी सिरे पहिनावै
पोता-पुत्र कुछू नै बोलै रहि-रहि लोर चुआबै
रुक जा माय रुके तों दादी मनें आवाज लगाबै
लोर पोछि फिन रावण बोलै गुण तोरोॅ ही गाबौं
तोरे कृपां रक्ष-वंश-ध्वज तिहूं लोकोॅ में फहराबौं
यै त्रिलोक में जहाँ मन करौॅ चम्पक साथें जाबें
एक वचन तोरा सें पाबौं लंका नैं बिसराबें
वचन दैकेॅ चम्पक लै कैकसी सगरो घूमें लागै
कभी बहनां कभी पति के आश्रम जन्नेॅ तन्नेॅ भागै
कभी कैलास के मान सरोवर धाम शिवोॅ तक जाबै
कभी कुबेर अल्कापुरी पहुँची वरवर्णिणी मिलि आबै
कभी पाताल में असुर भवानी पूजी लंका आबै
मगर मोह में डुबलो मन केॅ नहीं निकालेॅ पाबै