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परछाइयों की हथेलियों पर दिये / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
तुमने एक बार फिर कैसे जला दिये?
परछाईयों की हथेलियों पर दिये?
खुद नहीं आये, कल
हमें बहुत से गीत अकेले ही भेज दिये।
वैसे मैं खेलूंगी भी, पढ़ूंगी भी
तुम्हारे इन गीतों की किताब,
खोज सकूंगी तो खोजूंगी तुम्हें
दर्द के पहाड़ों के नीचे
दर्द की घाटियों के पास।
एक दिन बोये थे मैंने बहुत-से आँसू
तुम्हारे छन्दों के आसपास।
अब कई दिन झरेंगे, मेरी आँखों से सावन,
समय के एक लम्बे अन्तराल के बाद।
तुम्हारे अकेले भर का नहीं था
तुम्हारे गीतों का सारा दर्द,
मेरी भी छायाएँ थी उन पर
वर्षों, मैं भी बनी रही थी जीवित सन्दर्भ।
मेरे हिस्से में भी आई थीं
कुछ मन की, कुछ तन की पीड़ाएँ
हमने साथ-साथ ही मनाये थे
देहों के उत्सव! समर्पणों के पर्व!!