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परछाईयाँ / ”काज़िम” जरवली
Kavita Kosh से
खून की मौजों से नम परछाईयाँ,
हैं नज़ारें मोहतरम परछाईयाँ ।
जिस्म कट सकता है खंजर से मगर,
हो नहीं सकती क़लम परछाईयाँ ।
बाल बिखराए हुए शाम आ गयी,
हो गयीं जिस्मों से कम परछाईयाँ ।
जिन्दगानी की हकीकत तेरा ग़म,
और सब रंजो आलम परछाईयाँ ।
ये ज़मीं देखेगी ऐसी दोपहर,
ख़ाक पर तोड़ेंगी दम परछाईयाँ ।
मोजिज़ा बन जा मेरी तशनालबी,
धूप पर करदे रक़म परछाईयाँ ।
ज़ुफिशा है ज़हन में सूरज कोई,
हैं मेरे ज़ेरे क़लम परछाईयाँ ।
सामने रौज़ा है, सूरज पुश्त पर,
हमसे आगे दस क़दम परछाईयाँ ।
हशर का सूरज सवा नैज़े पा है,
धूप है शाहे उमम परछाईयाँ ।
छुप गया काज़िम वो तशना आफताब,
ढूँढती हैं यम बा यम परछाईयाँ ।। -- काज़िम जरवली