भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परत दर परत / संगीता गुप्ता
Kavita Kosh से
परत दर परत
उदासी के कोहरे को
पार कर
मैं पहुँची सूरज के पास
तबदील हो गया
उसका चेहरा तुम्हारे चेहरे में
देखती रह गयी उसे
हतप्रभ मैं
लगा जैसे
खो गई हूँ
किसी ख्वाब में
अगले पल
इस एहसास से
भारी हो गया मन कि
न तो सूरज समा सकता है
मेरी मुट्ठी में
न तुम
सूरज तो उन सभी का है जो इन्तजार में हैं सुबह की