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पराजय / बसन्तजीत सिंह हरचंद
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हाथ लगी तनिक छार
मैं जीवन गया हार।
मेरा हर स्वर्ण दांव,
मिट्टी के गया भाव,
अंतर्मन -गहन - घाव,
गढ़े दंत धारदार।
औरों के श्वास छीन,
जीते जो वे अदीन,
मैं पल-पल हुआ दीन,
सोच -सोच सच विचार।
(आ गीत कातें री!, १९९३)