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परिचय / विमल राजस्थानी

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‘‘सुनो सुनयने! मुझे रात सपना विचित्र-सा आया
एक-एक घटना का वासव ने वृतान्त बतलाया
प्यास और भी बढ़ी मिलन की, प्राण छटपटाते हैं
ऐसा क्या है जो न भिक्षु मेरे द्वारे आते हैं
कौन, कौन, वह कौन, वज्र सी छाती लिये अड़ा है
मेरे नयनो क सम्मुख बस, भिक्षुक वही खड़ा है
नहीं सुझता मुझे कुठ भिक्षुक के आगे
जानूँ तो वह कौन भला जो झुका न मेरे आगे
जाओ स्वयम्, गुप्तचर क लेनी मुझको न शरण है
यह मेरे ऐश्वर्य-रूप का उस याचक के रण
जय लेनी है मुझे, हारना भिक्षुक को ही होगा
वंचित है, उसने न पूर्व में सुख नारी का भोगा
वह भी वासव-सी नारी जो दुर्लभ सुर-असुरों को
मत्त हुआ त्रैलोक्य कि सुन कर जिसके मदिर सुरों को
चरणो पर लोटते यक्ष, गर्न्धव, मुकुट मणियों के
तारो में कंपन भरते जिसक सुर पैंजनियों के
क्या मेरा त्रैलोक्य-जयी सौन्दर्य हार जायेगा ?
सुमुखि! अनोखा भिक्षु न मेरे द्वार खिँचा आयेगा ?
लगता है- वह भिक्षु न कोई बहुरूपिया, नर सुा है
इप्द्रजाल की सकल विधाएँ वश में किये प्रचुर है
इप्द्रजान कर छिन्न्-भिन्न मैं, पथ सका मोडूँगी
प्राण त्याग दुँगी चरणे पर, डोर नहीं छोडूँगी
विजित मुझे करना है उसको,यह मेरा दृढ़ व्रत है
वह जो भी हो, वासव का तन-मन उसको अर्पित है‘‘
‘‘वासव तूने क्या कर डाला! किससे हृदय जुड़ाया!!
वे तो हैं उपगुप्त, सुयश जिनका दिशि-दिशि में छाया
तू तो कभी बाहर न घूमी, और न निकली मैं ही
फिर हम कैसे जानें दोनो कौन राम-वैदेही
रही सदा नृत्य गान में मग्न, न जग को जाना
पड़ा मुझका छाया न कर दासी का धर्म निभाया
बहुत बड़े हैं तपी, सिद्धियों के अमोध अधिकारी
मैंने देखा चरण छू रहे थे उनके नर-नारी
प्रथम भेंट में मैंने सोचा था ऐसा-वैसा
होगा कोई साधारण भिक्षुक अन्यों के जैसा
यद्यपि तेजोमय मुख-मंडल निरख चकित थी मैं भी
उसका रूप असाधारण लख कर विस्मित थी मैं भी
पर मैंने न स्वप्न में सोचा था जो, अब जाना है
तुम भू पर, वे पभ पर, दुर्लभ-अलभ उन्हे पाना है
अस्तु,ध्यान तज दो सखि! उनका, हृदय पूर्ववत कर लो
नहीं एक को, सारी मथुरा को बाँहों में भर लो‘‘
‘‘हुँह! भोली नयने! अब तो जो भी हो, वह मेरा है
उसके चारो और पड़ा यह बाँहो का घेरा है
चाहे हो वह सिद्ध या कि हो स्वयम् सुरेश, वरुण हो
या कि स्वर्ग से सीधा उतरा भू पर अमर तरुण हो
वासवदता का अनिंद्य यह रूप, समुद्र कला का
वेधेगी उसका पवि-मानस निश्चय काम-शलाका
यह कुबेर का कोष झुके, ऐसा ऐश्वर्य निराला
चौंसठ कला-विधाएं क्या यों ही मिट्टी चूमेंगी
चाहा यदि मैंने न, धुरी पर धरा नहीं घुमेगी