भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परिवर्तन / मधु आचार्य 'आशावादी'
Kavita Kosh से
जब तक
गांव में घर थे कच्चे
गोबर और गारे से सने
तब तक थे उनमें
मनुष्य पक्के
एकदम सच्चे
विश्वास योग्य
समय बदला
घर बने पक्के
वहां मार्बल और टाइल्स लगी
टीवी के लिए छतरियां टंगी
घरों के सामने कारें हुई खड़ी
अब घर तो हो गए पक्के
किंतु मनुष्य हो गए कच्चे....
घर कच्चे तो मनुष्य पक्के
घर पक्के तो मनुष्य कच्चे !
अनुवाद : नीरज दइया