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परिशिष्ट-12 / कबीर

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इन माया जगदीस गुसाई तुमरे चरन बिसारे॥
किंचत प्रीति न उपजै जन को जन कहा करे बेचारे॥
धृग तन धृग धन धृगं इह माया धृग धृग मति बुधि फन्नी॥
इस माया कौ दृढ़ करि राखहु बाँधे आप बचन्नी॥
क्या खेती क्या लेवा देवा परपंच झूठ गुमाना॥
कहि कबीर ते अंत बिगूते आया काल निदाना॥21॥


इसु तन मध्ये मदन चोर। जिन ज्ञानरतन हरि लीन मोर॥
मैं अनाथ प्रभु कहौं काहि। की कौन बिगूतो मैं की आहि॥
माधव दारुन दुख सह्यौ न जाइ। मेरो चपल बुद्धि स्यों बसाइ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि। नाभि कमल जाने ब्रह्मादि॥
कविजन जोगी जटाधारि। सब आपन औसर चले धारि॥
तू अथाह मोहि थाह नांहि। प्रभु दीनानाथ दुख कहौं काहि॥
मेरो जनम मरन दुख आथि धीर। सुखसागर गुन रव कबीर॥22॥

इहु धन गोरो हरि को नाउँ। गांठि न बाँधो बेचि न खाँउ॥
नाँउ मेरे खेती नाँउ मेरी बारी। भगति करौ जन सरन तुम्हारी॥
नाँउ मेरे माया नाँउ मेरे पूँजी। तुमहि छोड़ि जानौ नहिं दूजी॥
नाँउ मेरे बंधिय नाँउ मेरे भाई। नाँउ मेरे संगी अति होई सहाई॥
माया महि जिसु रखै उदास। कहि हौं ताकौ दास॥23॥

उदक समुँद सलल की साख्या नदी तरंग समावहिंगे॥
सुन्नहि सुन्न मिल्या ममदर्सी पवन रूप होइ जावहिंगे॥
बहुरि हम काहि आवहिंगे॥
आवनजाना हुक्म तिसै का हुक्मै बुज्झि समावहिंगे॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐते भर्म चुकावहिंगे॥
दर्सन छोड़ भए समदर्सी एको नाम धियावहिंगे॥
जित हम लाए तितही लागे तैसे करम कमावहिंगे॥
हरि जी कृपा करै जौ अपनी तो गुरु के सबद कमावहिंगे॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जन्म न होइ॥
कह कबीर जो नाम सामने सुन्न रह्याँ लव सोई॥24॥

उपजै निपजै निपजिस भाई। नयनहु देखत इह जग जाई॥
लाज न मरहु कहौ घर मेरा। अंत के बार नहीं कछु तेरा॥
अनेक जतन कर काया पाली। मरती बार अगनि संग जाली॥
चोवा चंदन मर्दन अंगा। सो तनु जले काठ के संगा॥
कहु कबीर सुनहु रे गुनिया। बिनसैगो रूप देखै सब दुनियां॥25॥


उलटत पवन चक्र षट भेदै सुरति सुन्न अनुरागी॥
आवै न जाइ मरै न जीवै तासु खोज बैरागी॥

मेरा मन मनहीं उलटि समाना।
गुरु परसादि अकल भई अवरै नातरु था बेगाना॥
निबरै दूरि दूरि फनि निबरैं जिन जैसा करि मान्या॥
अलउती का जैसे भया बरेडा जिन पिया तिन जान्या॥
तेरी निर्गुण कथा काहि स्यों कहिये ऐसा कोई बिबेकी॥
कहु कबीर निज दया पलीता तिनतै सीझल देखी॥26॥

उलटि जात कुल दोऊ बिसारी। सुन्न सहजि महि बुनत हमारी॥
हमरा झगरा रहा न कोऊ। पंडित मुल्ला छाड़ै दोऊ॥
बुनि बुनि आप आप परिरावौं। जहँ नहीं आप तहाँ ह्नै गावौं॥
पंडित मुल्ला जो लिखि दिया। छाड़ि चले हम कछू न लिया॥
रिदै खलासु निरिखि ले मीरा। आपु खोजि खोजि मिलै कबीरा॥27॥

उस्तुति निंदा दोउ बिबरजित तजहू मानु अभिमान।
लोहा कांचन सम करि जानहि ते मुरति भगवान॥

तेरा जन एक आध कोइ।
काम क्रोध लोभ मोह बिबरजित हरिपद चीन्हैं सोई।
रजगुण तमगुण सतगुण कहियै इह तेरी सब माया॥
चौथे पद को जो नर चीन्है तिनहिं परम पद पाया।
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा॥
त्रिस्ना अरु माया भ्रम चूका चितवत आतमरामा॥
जिह मंदिर दीपक परिगास्या अंधकार तह नासा॥
निरभौ पूरि रहे भ्रम भागा कहि कबीर जनदासा॥28॥

ऋद्धि सिद्ध जाकौ फुरी तब काहु स्यो क्या काज॥
तेरे कहिने कौ गति क्या कहौं मैं बोलत ही बड़ लाज॥

राम जह पाया राम ते भवहि न बारे बार॥
झूठा जग डहकै घना दिन दुइ बर्तन की आज॥

राम उदक जिह जन पिया तिह बहुरि न भई पियासा॥
गुरु प्रसादि जिहि बुझिया आसा ते भया निरासा॥

सब सचुन दरि आइया जो आतम भया उदास॥
राम नाम रस चाखिया हरि नामा हरि तारि॥
कहु कबीर कंचन भया भ्रम गया समुद्रै पारि॥29॥

एक कोटि पंचसिक दारा पंचे मांगहि हाला।
जिमि नाहीं मैं किसी की बोई ऐसा देव दुखाला॥

हरि के लोगा मोकौ नीति डसे पटवारी॥
ऊपर भुजा करि मैं गुरु पहि पुकारा तिनकौ लिया उबारी॥

नव डाडी दस मुंसफ धावहि रहयति बसन न देही॥
डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिष्टाला लेही॥

बहुतरि घर इक पुरुष समाया उन दीया नाम दिखाई॥
धर्मराय का दफ्तर सोध्या बाकी रिज मन काई॥

संता को मति कोई निंदहु संत राम है एको।
कहु कबीर मैं सो गुरु पाया जाका नाउ बिबेकौ॥30॥


एक जोति एका मिली किबा होइ न होइ॥
जितु घटना मन उपजै फूटि मरै जन सोइ॥

सावल सुंदर रामय्या मेरा मन लागा तोहि॥

साधु मिलै सिधि पाइयै कियेहु योग कि भोग॥
दुहु मिलि कारज ऊपजै राम नाम संयोग॥

लोग जानै इहु गीता है इह तो ब्रह्म बिचार॥
ज्यो कासी उपदेस होइ मानस मरती बार।

कोई गावै कोई सुनै हरि नामा चितु लाइ।
कहु कबीर संसा अंत परम गति पाइ॥31॥

एक स्वान कै धर गावण, जननी जानत सुत बड़ा होत है।
इतंना कुन जानै जि दिन दिन अवध घटत है॥
मोर मोर करि अधिक लाहु धरि पेखत ही जमराउ हँसै॥
ऐसा तैं जगु भरम भुलाया कैसे मुझे जब मोह्या है माया॥
कहत कबीर छोड़ि बिषया रस इतु संगति निहची मरना॥
रमय्या जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भवसाग तरना॥
जाति सुभावै ता लागे भाउं। मर्म भुलावा बिचहु जाइ॥
उपजै सहज ज्ञान मति जागै। गुरु प्रसाद अंतर लव लागै॥
इतु संगति नाहीं मरण। हुकुम पछाणि ता खसमै मिलणा॥32॥

ऐसौ अचरज देख्यौ कबीर। दधि कै भोलै बिरोलै नीर॥
हरी अंगूरी गदहा चरै। नित उठि हासै हीगै मरै॥
माता भैसा अम्मुहा जाइ। कुदि कुदि चरै रसातल पाइ॥
कहु कबीर परगट भई खेड़। ले ले कौ चूधे नित भेड़॥
राम रमत मति परगटि आई। कहु कबीर गुरु सोझी पाई॥33॥

ऐसो इहु संसार पेखना रहन न कोऊ पैहे रे॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवैहै रे॥
सारे बूढ़े तरुने भैया सबहु जम लै जैहै रे॥
मानस बपुरा मूसा कीनौ मींच बिलैया खैहै रे॥
धनवंता अरु निर्धन मनई ताकी कछू न कानी रे॥
राज परजा सम करि मारै ऐसो काल बढ़ानी रे॥
हरि के सेवक जो हरि भाये तिनकी कथा निरारी रे॥
आवहि न जाहि न कबहूँ मरती पारब्रह्म संगारी रे॥
पुत्र कलत्रा लच्छमी माया इहै तजहु जिय जानी रे॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु मिलिहै सारंगपानी रे॥34॥

ओई जूं दीसहि अंबरि तारे। किन ओइ चीते चीतन हारे॥
कहु रे पंडित अंबर कास्यो लागा। बूझे बूझनहार सभागा॥
सूरज चंद्र करहि उजियारा। सब महि पसर्‌या ब्रह्म पसार्‌या॥
कहु कबीर जानैगा सोई। हिरदै राम मुखि रामै होई॥35॥

कंचन स्यो पाइयै नहीं तोलि। मन दे राम लिया है मोलि॥
अब मोहि राम अपना करि जान्या। सहज सुभाइ मेरा मन मान्या॥
ब्रह्मै कथि कथि अंत न पाया। राम भगति बैठे घर आया॥
बहु कबीर चंचल मति त्यागी। केवल राम भक्ति निज भागी॥36॥

कत नहीं ठौर मूल कत लावौ। खोजत तनु महिं ठौर न पावौ॥
लागी होइ सो जानै पीर। राम भगत अनियाले तीर॥
एक भाइ देखौ सब नारी। क्या जाना सह कौन पियारी॥
कहु कबीर जाके मस्तक भाग। सब परिहरि ताको मिले सुहाग॥37॥

करवतु भया न करवट तेरी। लागु गले सुन बिनती मेरी॥
हौ बारी मुख फेरि पियारे। करवट दे मोकौ काहे को मारे॥
जौ तन चीरहि अंग न मोरी। पिंड परै तो प्रीति न तोरी॥
हम तुम बीच भयो नहीं कोई। तुमहि सुंकत नारि हम सोई॥
कहत कबीर सुनहु रे होई। अब तुमरी परतीति न होई॥38॥

कहा स्वान कौ सिमृति सुनाये। कहा साकत पहि हरि गुन गाये॥
राम राम रमे रमि रहियै। साकत स्यों भूलि नहिं कहिये॥
कौआ कहा कपूर चराये। कह बिसियर को दूध पिआये॥
सत संगति मिलि बिबेक बुधि होई। पारस परस लोहा कंचन सोई॥
साकत स्वान सब करै कहाया। जो धूरि लिख्या सु करम कमाया॥
अभिरत लै लै नीम सिंचाई। कहत कबीर वाको सहज न जाई॥39॥

काम क्रोध तृष्णा के लीने गति नहिं एकै जाना।
फूटी आंखै कछू सूझै बूड़ि मुये बिनु पानी॥
चलत कत टेढ़े टेढ़े टेढ़े।
अस्थि चर्म बिष्टा के मूँदे दुरगंधहिं के बेढ़े॥
राम न जपहु कौन भ्रम भूले तुमते काल न दूरे॥
अनेक जतन करि इह तन राखहु रहे अवस्था पूरे॥
आपन कीया कछू न होवै क्या को करै परानी॥
जाति सुभावै सति गुरु भेटै एको नाम बखानी॥
बलुवा के धरुआ मैं बसत फुलवते देह अयाने॥
कहु कबीर जिह राम न चेत्यो बूड़े बहुत सयाने॥40॥