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परीछा, होली अउ हड़ताल / अरुण हरलीवाल
Kavita Kosh से
कइलन परोफेसर सब बड़की हड़ताल;
दूरा पर बइठके बजवेत ही झाल।
रोज नया झारऽ हथ टाइ अउ कोट,
ले हथ महीना में भर झोला नोट;
तइयो संतोस नइँ, हथ हदियाल।
पढ़उनी में असकत, परीच्छा में नखरा,
बनऽ हथ लइकन सब बलि के बकरा;
उनका हे गरज का, का हम्मर हाल।
चोरी माय के किरपा से बी.ए. तो पास कइली,
एम.ए. में आके मगर चार बरिस नास कइली;
चलेत परीच्छा बीचें में रून्हाल।
मन नइऽ हल, बाबूजी भेज देलन कउलेज,
उनका तो चाही खूब तिलक-दहेज;
हमरा तो पढ़ाय लगे भारी जंजाल।
आइल न इहो साल फिर एको अगुआ,
गुजर गेल जिनगी के चउबीसमा फगुआ;
पके लगल केस अउ धँसे लगल गाल।
मिल जाय कइसहुँ होगगाडो के बरदी,
भाँड़ में जाय डिगरी, हाँड़ में लगे हरदी;
हमरा सोहाइत न हे रंग अउ गुलाल।