पर्वत: एक बृद्ध / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
दप-दप हिमहिक पाग माथपर कान्हहु निर्झर चादरि
तनपर चपकन पहिरि तरु-गनक तानल छाता बादरि
साल विशाल फराठी करमे चलब कठिन, तेँ अचले
बटुआ कटि लटकाय गुफाहिक गुआ धातु कत गचले
सर-सरि ससरि नहाथि कोनहुना फल, दल तोड़थि निचले
घाटी-घाटी नहु-नहु कखनहु सम्हरि चलथि पथ बिचले
कखनहु मन प्रसन्न खेलबथि कत मृग - शावक समुदाय
हरित-भरित तृण-लता - गुल्म फल - दल सन्देश सजाय
खन तमसाथि गरजि पशु हिंस्र बाघ - सिंहुक हुंकार
जे फनैत दल चढ़य न मस्तक तेँ उचिते दुत्कार
खनहु विहंगम स्वर - संगमसँ गुन-गुन गान गबैत
मन हरैत छथि, गुन भरैत छथि, नीतिक श्लोक पढ़ैत
अनुभव रतन जोगाय, योग्य जनकेँ कत जतन सुझाय
दिव्य औषधिक, मणि धातुक जत परिचय दैछ बुझाय
कमा-कमा निज शिला अंग सब - घर परिवार बसाय
खोजी आरोही शिष्यहुकेँ शिखर विचार चढ़ाय
तन कठोर पाहन, जत जगतक झाँट - बिहारि सहैछ
हिम - कोमल मन देखि जगत तापित, दृग द्रवित बहैछ
वृद्ध वसय रहितहुँ, हिम सहितहुँ, गलितहुँ जगहित हेतु
दया - द्रवित चित, झरि उर-निर्झर सरस करथि नित खेत
नमन करिअ, अनुगमन करिअ, परिकरमा श्रद्धा - गाढ़!
पर्वत वृद्ध अहीँक समृद्धिक चिन्तन करइत ठाढ़!!