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पलकों की छाँव / उर्मिल सत्यभूषण

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फागुन में उड़ रहा मन सपनों के गाँव
रह-रह के ढूंढता है पलकों की छाँव

उड़ रहा अबीर, उड़ रहा गुलाल
हंसी से दमक उठे सतरंगी गाल
उमंग से थिरकते पग बहकी हुई चाल
अपने तो थमे हुये, थके हुये पांव

नगर-नगर डगर-डगर धूमती है टोली
नाच-नाच, झूम-झूम खेल रही होली
अपना तो मन बहका, सुनके ठिठोली
कौन से हो ठौर तुम, कौन से हो ठाँव

सतरंगी तान लेकर आया है फागुन
अपने तो नयनों में घुमड़ रहा सावन
टूटी हुई बांसुरी है रूठे हुये साजन
हारे हुये बैठे हम जीवन का दांव।