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पलाश का दुःख / अनुराधा ओस
Kavita Kosh से
पलाश सब कुछ देख रहा है
काठ होता मन
लाल होती सड़क
घर से हजारों मील दूर
प्रसव वेदना झेलती औरत
का दुःख बांटता है
भयंकर झलुसाये दिन में
जब डामर की सड़क पर भुन जाते हों
मकई के दाने
उस समय सबके तलुए सहलाता है पलाश
उसी समय न जाने किसके पैरों की आहट सुनकर चौंकता है
धरती दुःख से करवट बदलती है
और छलकाती है मौन पीड़ा
उसी समय कोई
पका रहा था भात
अपने टूटी हांडी में
उसी समय कोई
घर नहीं पहुँचा
पलाश सब कुछ देख रहा है
जव पैंतालीस डिग्री में लाल
हो रहीं थी पहाड़ियाँ
उसी समय कोई लकड़ियाँ काट रहा था
पलाश के दुःख एक स्त्री के
दुःख की तरह लाल-लाल है॥