पवन सामने है नहीं गुनगुनाना / वीरेंद्र मिश्र
पवन सामने है नहीं गुनगुनाना
सुमन ने कहा पर भ्रमर ने न माना
गगन से धरा पर सुबह छन रही है
किरन डोर खींचे बिना तन रही है
दिए बुझ गए हैं नए जल गए हैं
सपन उठ गए हैं नयन मिल गए हैं
हवा देख कर ही सुनाना तराना
सुमन ने कहा पर भ्रमर ने न माना
जरा साँस ले दूर तट का ठिकाना
तरणि ने कहा पर लहर ने न माना
मुझे रात भर तू बहाती रही है
थकी और मुझको थकाती रही है
वहाँ सामने बस यही शब्द तेरे
वही झूठ वो भी सवेरे-सवेरे
मुझे पार जाना नहीं डूब जाना
तरणि ने कहा पर लहर ने न माना
ठहर कर मुझे मंज़िलों तक चलाना
पथिक ने कहा पर डगर ने न माना
अभी है सुबह और आरम्भ मेरा
भरोसा न है यह चरण दम्भ मेरा
गगन धूप छाँही धरा धूप छाँही
कली देख सकती न तू किन्तु राही
मुझे फूल देकर तुझे है सजाना
पथिक ने कहा पर डगर ने न माना
अधूरे प्रणय का कथानक न माना
हृदय ने कहा पर अधर ने न माना
डगर पार जाए वही तो पथिक है
अगर हार जाए कहाँ वो श्रमिक है
नहीं छोड़ता कवि कभी गीत आधा
अधूरी समर्पित हुई थी न राधा
समझ सोच गाना बुरा है जमाना
हृदय ने कहा पर अधर ने न माना