भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहरेदार से / महमूद दरवेश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक पहरेदार से : मैं तुम्हें सिखाऊँगा इन्तज़ार करना
मेरी स्थगित मौत के दरवाज़े पर
धीरज रखो, धीरज रखो
हो सकता है तुम मुझसे थक जाओ
और अपनी छाया मुझसे उठा लो
और अपनी रात में प्रवेश करो
बिना मेरे प्रेत के !

.......

एक दूसरे पहरेदार से : मैं तुम्हें सिखाऊँगा इन्तज़ार करना
एक कॉफीघर के प्रवेश-द्वार पर
कि तुम सुन सको अपने दिल की धड़कन को धीमा होते, तेज़ होते
तुम शायद जान पाओ सिहरन जैसे कि मैं जानता हूँ
धीरज रखो,
और तुम शायद गुनगुना सको एक प्रवासी धुन
अन्दालुसियायी तकलीफ में, और परिक्रमा में फारसी
तब चमेली भी तकलीफ देती है तुम्हें और तुम चले जाते हो

.......

एक तीसरे पहरेदार से : मैं तुम्हें इन्तज़ार करना सिखाऊँगा
एक पत्थर की बेंच पर, शायद
हम बताएँगे एक-दूसरे को अपने नाम. तुम शायद देख पाओ
एक ज़रूरी मुस्कराहट हम दोनों के दरम्यान:
तुम्हारी एक माँ है
और मेरी एक माँ है
और हमारी एक ही बारिश है
और हमारा एक ही चाँद है
और एक छोटी सी अनुपस्थिति खाने की मेज़ से.