पहला पुरुष / महेश सन्तोषी
तुम मेरे जीवन में पहले पुरुष थे, अन्तिम नहीं।
जो प्यार ढो ले, वह वैसाखी अभी बनी ही नहीं।।
मैंने एक सत्य की तरह
तुम्हें स्वीकार किया।
पर एक झूठ की तरह
नकार भी दिया।
अगर तुम्हारी यादों को मैंने
अपनी उम्र नहीं दी
तो ऐसा कौन सा गुनाह किया?
प्यार, मेरे लिए
न पाप था, न पुण्य
न मैं अपावन थी, न अपावन हुई।
स्पर्शों को आतुर, आकुल आचरणों में
अब तो अपवादों में हैं
अनछुए आदमी, औरतें अनछुई।
पीछे मील के पत्थर ही खड़े रहे, मेरी ज़िन्दगी नहीं।
मैंने तो जिस मोड़ पर मुड़ना चाहा, मैं मुड़ती रही।
जो प्यार ढो ले, वह वैसाखी अभी बनी ही नहीं।।
मजारों पर जले दिये
ही काफी नहीं होते
जिन्दगी भर को उजालों के लिए।
जलती मशालों की भी
जरूरत होती है
उम्र के आगे उजालों के लिए।
अगर अतीत ही सब कुछ होता
तो फिर जीवन में नयी सुबह नहीं होती
मैंने ओस से धुली सुबह देखी है
मैंने नहीं देखी कोई परछाईं रोती।
क्या हुआ जो मैंने चुन लिये नये, बांहों के आधार
चाहों के क्षितिज,
मैं धार के विपरीत बही, धार के साथ नहीं बही।
जो प्यार ढो ले, वह वैसाखी अभी बनी ही नहीं।।