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पहले-पहल आँखों से दो हाथ निकलकर मिलते हैं / पुरुषोत्तम प्रतीक

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पहले-पहल आँखों से दो हाथ निकलकर मिलते हैं
फिर होंठों पर याराने के फूल अनोखे खिलते हैं

धीरे-धीरे लाते हैं भावों को मन के काग़ज़ पर
आते ही काग़ज़ पर सारे आखर-आखर हिलते हैं

आते हैं सच्चाई बनकर आँसू भी तब आँखों में
पथरीली धरती पर जब साँसों के तलुए छिलते हैं

कैसे-कैसे कारीगर हैं दुनिया से ऊपर देखो
बादल पानी के धागों से दरकी धरती सिलते हैं

इस मायानगरी में ज़िन्दा लोगों का घरबार कहाँ
महलों के मुरदों को अक्सर ताजमहल ही मिलते हैं