पहाड़ चढ़ने की शर्त / मनोज श्रीवास्तव
पहाड़ चढ़ने की शर्त
देखो!
आए हो
तो स्वागत् है!
पर, मेरी शर्तों पर
मुझमें से गुजरना होगा;
तुम्हारी नज़र लगी झाड़ियों में
बस, कुछ ही परित्यक्त घोसले रह गए हैं;
पता नहीं कहाँ चले गए
इसके इन्द्रधनुषी
पाखी वाले
चहकते
नागरिक!
मेरी शर्तों पर
तुम्हें छूना होगा
किसी देवदारु की बांहें,
नहीं टाँगना होगा उन पर
पोलीथीन का थैला,
जब मैं अपने
हीरक अतीत में
खोया रहूँ,
तभी इजाजत है तुम्हें
मुझे कैमरे में
कैद करने की
अरे, हां!
नहीं लूटना होगा
मेरी वादियों में
किसी पहाड़न की अस्मत,
देखो!
जब शीतल हवा बहने लगे
तुम्हें नहीं छोड़ना होगा
टेक्नो-शहरों से लाया हुआ
कलुषित उच्छवास
मैं तुम्हारी शर्तों पर
नहीं बख्शूंगा तुम्हें,
ढह पडूंगा तुम्हारे ऊपर
तुम्हारे चेते बगैर,
सो, बाज आ जाओ
मुझ पर अपनी मुहर लगाने से,
मेरी शर्तों पर ही तुम
बैठ सकोगे मेरी घाटियों में आइन्दा
किसी बहती धारा में पैर लटकाकर,
या झुककर हाथ डालकर
हां!
मेरी शर्तों पर ही
मिलेंगी खुशियाँ तुम्हें
और दहकते प्रदेशों से आकर
मेरी वादियों का शीतल अमृत वरदान,
जब तक मेरे बिखरे कंकड़ों-पत्थरों को
देव-प्रतिमाओं की तरह पूजोगे नहीं
मैं देवस्थलियों में
नहीं टिकाने दूंगा
तुम्हारे पांव
मैं रौँद-रौँद तुम्हें नहीं जाने दूंगा
शर्त-पाश से बांधकर,
तुम्हें विवश कर दूंगा
अपनी शर्तों पर
जीने के लिए.
(मसूरी; १६-०६-२०१०)