भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पहाड़ों पर बर्फ़ / चंद्र रेखा ढडवाल
Kavita Kosh से
पहाड़ों पर बर्फ़
दिनों की गर्जन उपरान्त
सहसा ही
हल्के काले बादलों ने
नीले आकाश को छाकर
मौन साध लिया
इस चुप्पी को
किसी अनिष्ट का संकेत मान
सहमी पवन रुकी रह गई
तभी...
हेमंत के प्रांगण में
अजान किसी क्रीड़ा-प्रेमी ने
सफ़ेद गुलाब की
ढेरों पंखुड़ियाँ बिखरा दीं.
श्यामल मिट्टी
अपनी उजलाई पर रीझ
हँस पड़ी
पवन आश्वस्त हो
चल दी / बादल को साथ लिए
और हँस कर सूरज ने देखा
मुग्ध किरणें , हिमकणों को
चूम रही हैं.