भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहिलोॅ सर्ग / अंगेश कर्ण / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अधिरथ-राधा देखी-देखी
तन सें गदगद, मन सें गदगद,
कर्ण बड़ोॅ होलोॅ ही जाय छै
महिने-महिने बाढ़, बढ़ै कद।

अद्भुत शोभा कर्ण देह के
मुख के शोभा वैसें दुगुना,
कानोॅ में कुंडल जे लटकै
आरो कवचोॅ सें तेॅ तिगुना।

स्वर्ण कवच-कुंडल सें चमकै
कर्ण देह ठो सोने हेनोॅ,
सोनै के पर्वत केॅ काटी
मूर्त्ति गढ़ैलोॅ छै बस जेनोॅ।

गंगा रोॅ लहरोॅ पर कभियो
कभियो गंगा के कातोॅ पर,
कर्ण करै छै खेला-कूदी
ध्यान नै दै मैय्यो बातोॅ पर।

कुछ सीखै अपने सें करतब
कुछ तेॅ अधिरथ भी सिखलाबै,
रथ केॅ, तीर चलाबै के भी
सब विद्या केॅ ही बतलाबै।

एक बात बतलाबै अधिरथ
कर्ण पचासो ठो जानी लै,
ऊ बातोंॅ केॅ जानिये रहै
जेकरा जानै लेॅ ठानी लै।

गदगद छेलै राधा-अधिरथ
कर्ण पत रं पावी दोनों,
रोज मनौती राखै कुछ-कुछ
बात उठै जों मन में कोनो।

हुन्नें सौंसे अंगदेस मकें
चर्चा एक यही बातोॅ के,
कर्णोॅ के ताकत देहोॅ के
आरो तीर कला हाथोॅ के।

बिजली नाँखी तीर छुटै जों
रथ हाँकै पर बादल गड़गड़,
दोनों जो इक साथ चलै तेॅ
धरती पर उठलोॅ जाय अंधड़।

तखनी अधिरथ कर जोड़ी केॅ
गांग माय केॅ शीश नवाबै,
सौ जन्मोॅ के पुण्य पावी केॅ
राधाहौ जाय फूल चढ़ाबै।


समय गजरलै हौले-हौले
हौले-हौले कर्ण जुआनी,
सोना रं तपलै आगिन मे;
गदगद देखी दोनों प्राणी।

एक दिन अधिरथ कर्णोॅ केॅ लै
हस्तिनापुर पहुँची गेलै,
पाण्डव-कौरव साथ मिली केॅ
जहाँ धनुष रोॅ खेला खेलै।

कौरव-दल सें पाण्डव डौढ़ा
वैमें अर्जुन सब पर भारी,
कत्तो कौरव चाल दिखाबै
रहिये जाय अर्जुन सें हारी।

दाँत तरोॅ में अंगुरी दै केॅ
देखवैया सब टुक-टुक ताकै,
पर कर्णोॅ केॅ अचरज कुछ नै
पाण्डव-मन में शंका डाकै।

तभिये कर्ण कही ई उठलै
”कुछ मौका हमरौ भी चाही,
कला दिखाबौं अर्जुन केॅ कुछ
झुट्ठे लूटै ऊ वाहीवाही।“

कर्णोॅ केरोॅ बात सुनी केॅ
भीमोॅ केॅ गोस्सा हौ चढ़लै,
सबक सिखाय लेॅ कर्णोॅ के दिश
तमतम मूँ ऊ आगू बढ़लै।

कर्णोॅ छेलै तैयारे रं
दोनों भिड़लै गुत्थम-गुत्था,
देखवैय्या केॅ दाँती लागै
कौरव आरो पाण्डव-जत्था।

भीम कलाबाजी में माहिर
चाल चलै सौ बदली-बदली
बाकी पाण्डव कर्णोॅ केरोॅ
खड़ा उड़ाबै छेलै खिल्ली।

लेकिन केकरा ज्ञात ई छेलै
कर्ण भीम पर पड़तै भारी
हर चालोॅ केॅ माँत कर्ण दै
भीम कहै बस ‘अबकी बारी’।

लेकिन हर बारी भीमोॅ के
मात मिलै पटकनियै पाबै,
ई देखी दुर्योधन हुन्नें
कौरव-संगे खूब हहाबै।

आखिर कर्णोॅ के पेंचोॅ सें
भीम वहाँ हारी-पारी केॅ,
हरदी-गुरदी मानी लेलकै
सब रं कर्णोॅ सें हारी केॅ।

कौरव-दल के खुशी नै बोलोॅ
नाँचै उछली-कूदी-गावी,
गला लगैलकै बेमत होलेॅ
दुर्योधन कर्णोॅ लुग आवी।

खड़ा युधिष्ठिर टुक-टुक ताकै
अर्जुन के मूँ लटकी गेलै,
सहदेवो संग नकुल भी होनै
जे भीमोॅ के हालत छेलै।

कर्ण लौटलै दुर्योधन-संग
जों मणि मणिधर के माथा पर,
हुन्नें भीम युधिष्ठिर साथें
घृणा-द्वेष ग्लानि सें थर-थर।