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पहुँच के भीतर / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कुछ पहाड़ियाँ हैं जिनका कोई रहस्य नहीं है
या तो आदमी ने पाट दिया है उनको
लम्बे-लम्बे राजमार्गों से
या मान लिया है उनको
अपनी पहुँच के भीतर और छोड़ दिया है
जब भी गुज़रता है कोई इन पहाड़ियों से
निभर्य रहता है और जंगल और घनेपन में व्याप्त
आने वाले भटकाव से मुक्त
प्रत्येक वृक्ष को छूता-छेड़ता-लिपटता
दूर-दूर तक घुसता जाता है छोड़ता
लताओं में छिप गई पगडंडियाँ
रह जाती हैं कुछ लिपियाँ अनपढ़ी
जिन पर सिर्फ़ लताएँ लहराती रहती हैं ।