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पाँच / डायरी के जन्मदिन / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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एक नीरव स्वप्न,-
जैसे प्यार का
कोई सामुद्गमम ही नहीं,
बस...चेतना है,-
त्यक्त भावों की विरासत-सी;
नग्न केवल
और सुस्थिर विश्व
[ मद की ‘साधनाओं’ के किनारे मौन ]!

कौन है?... कौन है, जो
प्रश्न की अमराइयों में
आज जीवन-वर्तिका को
स्नेह दे?
ओ ऽ ऽ अंशुमाली...!
हो चुकी पूर्वार्द्ध की सन्ध्या
असुंदर शिलाओं पर
वृन्त-छूटी कली-सी निष्प्राण;
आहत हैं
किन्हीं युद्धागतों की
पंक्ति में
मेरे अपूजित प्राण के प्रतिमान!

नश्वर और दिव्य
अतीत के
आवाहनों से मंत्र-पूता अग्नि की
वे अर्चियाँ अब
रहगईं अव्यक्त...
क्षीण है
गन्तव्य की पथ-रेख,
पूर्वापर अमिट आराधनों का
शेष है- सन्दर्भ;
मैं इस तरह, कब...तक
विश्व-हीन, अकम्प, केवल शून्य
होकर
चाहता निर्वाण?

यह अति है,
अनाश्रित ज्वार की अति है; सुनो ऽऽ...
आवर्जनाओं की त्वरा के देश!
जो कुछ है वही केवल नहीं
संभाव्य का आधार,
सब कुछ है, रहेगा,
हो रहा है,- यह करो स्वीकार!

[१९६२]