पाँचम खण्ड / भाग 6 / बैजू मिश्र 'देहाती'
जतबा पओलक अछि मन क्लेश।
बचा ने सकतौ कालहुँ रणमे ,
ब्रह्मा विष्णु अरू स्वयं महेश।
वाण दुहू दिश बरिसय लगल,
जनु सावन घन बरिसय बुंद।
किन्तु लखन केर छल रण कौशल,
करथि शत्रु शर शतशत कुंद।
कौखन काटि खसाबथि शत्रुक,
शतशत शरकें एकहि संग।
कौखन वाण खाए मर्छित भए
खसए दसानन भेल चितंग।
बेरि बेरि मूर्छित भए लोटए,
रथ पर सम्मुख हो काल।
संकटमे लखि प्राण दसानन,
इहो चलौलक वाण कराल।
मूर्छित भए खसला धरती पर,
छाती पर छल लागल चोटं
ब्रह्मासँ पओने छल ई शर,
एकर प्रहार छलै नहि छोट।
खसल देखि लक्ष्मणकें भू पर,
रावण आयल हुनक समीप।
उठा लएचली लंकामे हम,
भेलै प्रदीप्त कामना दीप।
मुदा उठा नहि सकल दसानन,
लखनक अतिसैं प्रबल शरीर।
तखनहि आबि गेला अंजनि सुत,
उठा लेलनि सहजहि बलवीर।
रावणकें क्रोधानल जगलै,
मारल कीशकैं मुक्का तानि।
कनिये टगला वीर पवन सुत,
ओहो मारल मुष्टिक फानि।
सहि नहि सकलस मुष्टि हुनुमंत,
खसल दसानन ओतहि चितंग।
हनूमंत लक्ष्णकें अनलनि,
जतए छला रघुवीर सुअंग।
हाथ देल छाती पर रघुवर,
तैखन ओ भऽ गेला सचेत।
पुनि उठि धनुवाण सम्भारल,
पहुँचि गेला पलमे रण खेत।
घोर युद्ध दस मुखसँ ठानल,
शत शत वाणक चलल प्रहार।
वर्णन की हो लखनक कौशल,
लागए दसकंधर निःसार।
सूर्य भेला अस्ताचल गामी,
देल वाण केर झरी लगाए।
वेधि शरीर दसोमुह वेधल,
मर्माहत कए देल खसाए।
लए भागल दसशीसक सारथि,
लकापतिकें मृतवत् जानिं
दशा देखि लंका केर वासी,
मंदोदरि संग देलनि कानि।
दोसर दिन भोरे उठि रावण,
ठानि देलक विजय श्रीयज्ञ।
गुप्त सूचना पाबि विभीषण,
कहल रामसँ सुनु सर्वज्ञ।
ठानि देने अछि यज्ञ दसानन,
जौं भए गेलै ई सम्पन्नं
मरत ने ओ कोनो उपाएसँ,
कहि परिथिति अछि आसन्न।
तखनहि गेला पवन सुत अंगद,
बहुतायत बानर लए संग।
बिबिध प्रकारक कयल उपद्रव,
कयल यज्ञ दसशीसक भंग।
अति सैं क्रोधक संग दसानन,
चलल युद्ध हित सैन्य समेत।
छल अपार गज बाजि दनुज दल,
ककर शक्ति जे गिनती लेत।
ओम्हर देवगण रामक लगमे,
अपन कष्ट सभ छला कहैत।
देने छल दसशीस पूर्वमे,
रहलहुँ कत हम दुख सहैत।
आब बिलम्ब ने हैत उचित प्रभु,
महाराक्षसक करिओ अंत।
धरती केर ई भार हटबिऔ,
अहंकार बल अछि बलबंत।
बिहुँसि राम धनुवाण उठौलनि,
जटा जूटकें लेलनि सम्हारि।
युद्ध स्थल दिश बिदा भएगेला,
त्रिभुवन पति अतुलित बलधारि।
छल असंाख्य बानर योद्धा सभ,
रीछहुँ अमित छला प्रभु संग।
देखएमे अद्भुत लगैत छल,
सभक पूँछ मुँह रंग विरंग।
सभा क्यो मेरू वृक्ष बर साबथि,
जनु धन जलकें करथि प्रपात।
राक्षस दल पिचाए दम तोड़ए,
तेहन करए गिरि खसल अघात।
रक्तक धार बहल छल भरिगर,
राक्षस दल केर, युद्धक बीच।
ओही राक्षसक धकुचल देहक,
धारमे छल बहु कादो कीच।
एम्हर घोर युद्धक छल दुख सुख,
ओम्हर गीध केर जागल भाग।
महद् भोज्य केर सुख सरसाबए,
मनसँ मगन अलापए राग।
गीदर सभ केर जुनि किछु पूछू,
ओकरो सबहक छल बर भोज।
ने ककरो दिश छल क्यो तकइत,
नहि ककरो छल ककरो खोेज।
चलबै छला राम शत शत शर,
मृतक दनुज पाटल रण भूमिं
खलजनु अनकर दुखसँ हरषए,
उठल मांस भक्षी छल झूमि।
रावण केर मनि चिंता उपजल,
सकल सैन्य अछि मारल गेल।
एकसर बिनु माया रण कयने,
लड़ब निरर्थक नासक लेल।
ओम्हर देवगण रामचन्द्रकें,
पैदल देखि भेला भयभीत।
इन्द्रक रथकें मांगि पठौलनि,
रामक हित छल बात पुनीत।
देखि रामकें रथ पर बैसल,
कीश सैन्य केर मन बहु हर्ष।
द्विगुणित बल उपजल सबहक मन,
रहल ने दसकंधर दुर्द्धर्ष।
किन्तु दसानन माया कैलक,
राम छोड़ि सभ फँसला जाल।
बहुतो राम लखन उपजाओल,
स्तब्ध कीश बनि गेला बेहाल।
ककरा पर करता प्रहार सभ,
सभतरि दूनू मूर्ति देखाए।
टुकुर टुकुर सभ देखि ठाढ़ छथि,
भ्रम बस ककरो किछुने फुराए।
राम देखि ई दशा सैन्य केर,
छोड़ल माया काटक वाण।
बिला गेल माया रावण केर,
पलमे भेल सभक कल्याण।
तदनन्तर कोशलपति बजला,
सेना लोकनि करथु विश्राम।
एकसर लड़ब दसाननकें संग,
देखथु सभ क्यो ई संग्राम।
देखि रामकें रावण बाजल,
छी समक्ष हम तोहर काल।
आन जकाँ हमरा पुनि बुझिहह,
हमर शक्ति अछि अति विकराल।
राम कहल जुनि बक-बक बाजह,
शक्तिक अपन कर उपयोग।
नहि बखानमे व्यर्थ लगाबह,
जौं रखैत छह करह प्रयोग।
रावण तखन क्रुद्ध भए छोड़ल,
शर सहस्त्र भए घेरल राम।
अग्नि वाणसँ काटि खसौलनि,
बिनुक्षण भरि नेने विश्राम।
खिसिआयल रावण शर छोड़ल,
वाण एकसै अधिक प्रचंड।
रथ परसँ सारथी खसाओल,
अहंकार बस बनल उदंड।
तत्क्षण राम स्म्हारल सारथि,
रावण पर छोड़ल शत वाण।
घोटक खसल रथहुकें चूड़ल,
सारथि सेहोने पओलक त्राण।
रावण कठिन त्रिशूलक कयलक,