पाँव / इंदुशेखर
काँच का यह आईना तो बेजुबाँ है
हुस्न से लबरेज़ यह चेहरा
न रक्खो काँच के आगे
कि उसका एक भी ज़र्रा
सलामत रह न पाएगा
बिचारा रात भर भटका करेगा ख़्वाब की गलियाँ
सुबह तक आँसुओं से तर
पता भी कुछ है तुम्हें —
ये चल रहे हैं फ़रवरी के आख़िरी दिन
शहर तक की हवाओं में उठ रही हैं
रेशमी अँगड़ाइयों की अनगिनत लहरें
दुपहरी फैलती है इस कदर
जैसे तुम्हारे अनसँवारे बाल फैले हों
शाम आती इस कदर जज़्बात से लिपटी हुई
जैसे तुम्हारे ओठ मन के पीत का्ग़ज़ पर
अवश ख़ामोशियों की सुर्ख़ नाज़ुक नज़्म
लिख जाएँ
उफ़ !
सुनो भी, काँच से नज़रें उठाओ
पास तो आओ
निहारो ही अगर तो निहारो यह रूप —
मेरी आँख की सिहरन-भरी यमुना बिछी है
झाँक कर देखो कि इसके हिये
कैसी चिलचिलाती प्यास है
निज राधिका के लिए
देखो, चाँद कैसे मुस्कराया
देखकर तुमको
देखो, आहाऽऽ,
कैसी चली फगुनी हवा
सर पर साजकर फूलों-भरी डोली
सुना तुमने अभी जो स्यात्
पहली बार
अमुआँ डाल पर की कोयली बोली ?
तुम्हारे ओठ पर यह घिर रही कैसी शराबी ग़ज़ल
यहाँ देखो कि यमुना में उठी कैसी मदिर हलचल
मेरी उँगलियों से गन्ध झरने लगी
मेरी साँस में गदरा रहा मधुमास
आओ पास सजनी, पास आओ
अहह !
मधु के क्षण हमें अपनी भुजाओं में
समेटे जा रहे हैं
साँस की बजने लगी है बीन
प्राणों की मदिर झँकार में
हम
डूब जाएँ
डूब जाएँ भूलकर
अपनी सभी तकलीफ़, दर्द, अभाव, पीड़ा
भूल जाएँ किस कदर हमने गुज़ारी,
बर्फ़ की रातें
भूल जाएँ साड़ियों की, ब्लाउजों की बात
मत करो कुछ याद कैसे
सह गई सब कुछ तुम्हारी देह
कैसे फरमा मुन्ना तुम्हारा
सफ़र साँगों का रहा करता
चिथड़ियाँ ओढ़कर
आओ,
भूल जाएँ हम सभी कुछ इस घड़ी
जिससे तपिश हम झेल पाएँ जेठ की असह्य
जलती रेत पर
चलते हुए ये पाँव
चलते ही रहें ।