पाठशाला / महाराज कृष्ण सन्तोषी
मुझे बचपन में
न प्रिय थी पुस्तकें
न अनुशासन
बस, अच्छा लगता था सुनना
छुट्टी की घण्टी
घर से पाठशाला
और पाठशाला से घर
इन्हीं दो के बीच
कहीं छिपी थी
मेरे होने की सार्थकता
बीच रास्ते एक नदी बहती थी
जिसके पुल पर
उन दिनों
मैं यह अक्सर सोचा करता था
नदी में फेंक दूँ
किताबों का यह बस्ता
और ख़ुद भी बहता हुआ जल हो जाऊँ
बिना पढ़े ही
सब कुछ सीख जाऊँ
आज जब सोचता हूँ
उन दिनों के बारे में
तो लगता है
यह दुनिया ही एक विशाल पाठशाला है
जिसकी छत आकाश
पेड़ दीवारें
पृथ्वी आँगन
वनस्पतियाँ किताबें
बदलते हुए मौसम पाठ्यक्रम
जहाँ पहाड़, नदियाँ, घास
छोटी बड़ी पगडण्डियाँ
सब अध्यापक
न कभी डाँटे न पीटें
न पूछें प्रश्न ही
सोचता हूँ
कैसी पाठशाला है
जो रात दिन खुली रहती है
जहाँ कोई किसी के नाप में
पाँव नहीं डालता
जहाँ हर कोई स्वतन्त्र है
बजाने को अपनी छुट्टी की घण्टी
साठ बरस की आयु में
आज पहली बार मुझे यह लग रहा है
मैं कितना निरक्षर हूँ
इसलिए
हड़बड़ी में ढूँढ़ने लगा हूँ
अपनी बची हुई सांसों के लिए
जीने की नई वर्णमाला