भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी / हरीशचन्द्र पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह अपना समय लेती ही है
निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों

भीतर का पानी लड़ रहा है बाहरी आग से
घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
पानी देह का साथ दे रहा है

यह वही पानी था जो अँजुरी में रखते ही
ख़ुद-ब-ख़ुद छिर जाता था बूँद-बूँद

यह देह की दीर्घ संगत का आन्तरिक सखा भाव था
जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में

बाहर नदियाँ हैं भीतर लहू है
लेकिन केवल ढलान की तरफ भागता हुआ नहीं
बाहर समुद्र है नमकीन
भीतर आँखें हैं
जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं

अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी

बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में

गुलाब खिले हुए हैं
कोपलों की खेपें फूटी हुई हैं
वसन्त दिख रहा है पूरमपूर

जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का
जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार

उसके न होने का मतलब ही
पतझड़ है
रेगिस्तान है
उसी को सबसे किफ़ायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है
व़ुजू