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पानी उछाल के / नईम
Kavita Kosh से
आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी-ताल के।
नाव किनारे के खजूर से
बाँध बटोरं शंख-सीपियाँ
खुली हवा-पानी से सीखें
शर्म-हया की नई रीतियाँ
बाँचें प्रकृति पुरुष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के।
लिख डालें फिर नये सिरे से
रँगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर
आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव सी हरी डाल के।
नमस्कार पक्के घाटों को
नमस्कार तट के वृक्षों को
हो न सकें यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के।