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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ८

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(7)
वंशस्थ

न चित्त होगा सुप्रफुल्ल कौन-सा।
न प्राप्त होगी किसको मिलिन्दता।
वसुंधरा के सरसी-समूह में।
विलोक शोभा अरविन्द-वृन्द की॥1॥

लगे हुए दर्पण हैं जहाँ-तहाँ।
विलोकने को दिव-लोक-दिव्यता।
जमा हुआ सद्बिचत नेत्र-वारि या।
वसुंधरा में सर हैं विराजते॥2॥

द्रुतविलम्बित

भरत-भूमि-समान न भूमि है।
अचल हैं न हिमाचल-से बड़े।
सुरसरी-सम हैं न कहीं सरी।
सर न मान-सरोवर-सा मिला॥3॥

शार्दूल-विक्रीडित

मोती पा न सके मराल उसमें हैं कंज वैसे कहाँ।
है वैसी कमनीयता सरसता औ दिव्यता भी नहीं।
वैसा निर्मल काँच-तुल्य जल भी है प्राप्त होता नहीं।
कैसे तो सर अन्य, मानसर-सा, पाता महत्ता कभी॥4॥

है तेरा उर सिक्त, तू तरल है, क्यों मान लूँ मैं इसे।
तू है धीरेर, गँभीर है, सरस है, ऐसा तुझे क्यों कहूँ।
रोते या करते विलाप उनकी है यामिनी बीतती।
कोकी-कोक-मिलाप रोक सर तू क्यों शोक-धाता बना॥5॥

दूर्वा-श्यामल भूमि-मध्य सरसी है आरसी-सी लसी।
पाते हैं उसके सुसिक्त तन में एकान्तता वारि की।
शोभा है जलराशि में विलसते उत्फुल्ल अंभोज की।
होती है प्रिय सपरिचय में पर्तरिंसना की प्रभा॥6॥

वंशस्थ

मराल-माला यदि है सदाशया।
कुकर्म में तो रत है वकावली।
सपूत भी है कुल में कपूत भी।
सरोज भी है सर में सेवार भी॥7॥

शार्दूल-विक्रीडित

है प्राय: पर खोल-खोल उड़ती या तोय में तैरती।
या बैठी सर-कान्त-कूल पर है शृंगारती गात को।
है पीती जल या कलोल करती है लोल हो डोलती।
बोली बोल अमोल केलि-रत हो नाना विहंगावली॥8॥

वंशस्थ

विनोदिता है सरसी विभूति से।
अतीव उत्फुल्ल सरोज-पुंज है।
विकासिका है सरसी सरोज की।
सरोज से है सरसी सुशोभिता॥9॥

द्रुतविलम्बित

छलक हैं भरती छवि वारि में।
सर मनोहरता अलबेलियाँ।
उछलती छिछिली खुल खेलती।
मछलियाँ करती अठखेलियाँ॥10॥

जलद है, पर वारिद है नहीं।
सरस हो बनता रस-हीन है।
सर-प्रसंग विचित्र प्रसंग है।
रह सजीवन जीवन-शून्य है॥11॥

शार्दूल-विक्रीडित

पैन्हे वस्त्रा ह खड़े विटप हैं दृश्यावली देखते।
धीरे है घन का मृदंग बजता, है ताल देती दिशा।
यंत्रों -सा सर को निनादित बना हैं बूँदियाँ छूटती।
गाते भृंग विहंग है, कर उठा हैं नाचती वीचियाँ12॥

कान्ता-केश-कलाप-से विलसते शैवाल की मंजुता।
मीनों का बहु लोल भाव सर की लीलामयी व्यंजना।
होगा कौन नहीं विमुग्ध किसमें होगी न उत्फुल्लता।
देखे रंग-बिरंग कंज-कलिता न्यारी तरंगावली॥13॥

है आती तितली दिखाती छटा, गाती विहंगावली।
है माती फिरती मिलिंद-अवली पा कंज से मत्तता।
आ के है बहुधा हवा सुरभिता अंभोज से खेलती।
हैं न्हाती मिलती समोद सर में दिव्यांगनाएँ कहीं॥14॥

द्रुतविलम्बित

विकसिता लसिता अनुरंजिता।
रसमयी कब थी न सरोजिनी।
मधुरता रसिका कब थी नहीं।
मधु-रता, मधु की मधुपावली॥15॥

(8)
प्रपात
गीत
(1)

निम्न गति खलती रहती है।
या पतन बहु कलपाता है।
या किसी प्रियतम का चिंतन।
दृग-सलिल बन दिखलाता है॥1॥

बहु विपुल वाष्प गिरि-हृदय में।
सर्वदा भरता रहता है।
वही क्या तरल तोय हो-हो।
उत्स बन-बन कर बहता है॥२॥

गिरि-शिखर पर बहुधा वारिद।
विहरता पाया जाता है।
स्वेद क्या उसके अंगों का।
सिमिट प्रस्रवण कहाता है॥3॥

पर कटे कटे किन्तु अब भी।
पड़ा करता है पवि शिर पर।
इसी से सदा उत्स मिस क्या।
गिराता है ऑंसू गिरिवर॥4॥

उत्स है उत्स या तपन के।
तापमय कर अवलोकन कर।
कलेजा गिरि का द्रवता है।
पसीजा करता है पत्थर॥5॥

रुदन-रत किसी व्यथित चित्त का।
निज व्यथा जो यों हरता है।
गि हैं झर-झर ऑंसू या।
नीर निर्झर का झरता है॥6॥

दलित दूबों का मुक्ता-फल।
छीनते हैं सहस्रकर-कर।
देख यह दशा मेरु रो-रो।
क्या बनाते हैं बहु निर्झर॥7॥

परम शीतल शिर-मंडन हिम।
ताप से तप जाता है गल।
प्रकट करता है क्या यह दुख।
उत्स मिस मेरु बहा दृग-जल॥8॥

नित्य होती पशु-हिंसा से।
क्या मथित हृदय कलपता है।
देख बहु करुणा दृश्य क्या गिरि।
उत्स के व्याज बिलपता है॥9॥

कौन-सी पीड़ा होती है।
किन दुखों से वे भरते हैं।
सदा झरनों के नयनों से।
किसलिए ऑंसू झरते हैं॥10॥