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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - १

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सांसारिकता
(1)
स्वभाव
गोद में ले रखता है प्यारे।
सरस बन रहता है अनुकूल।
मुदित हो करती है मधुदान।
भ्रमर से क्या पाता है फूल॥1॥

धारा कर प्रबल पवन का संग।
भरा करती है नभ में धूल।
गगन बरसाता है वर वारि।
बनाकर वारिद को अनुकूल॥2॥

सदा दे-दे सुन्दर फल-फूल।
विटप करता है छाया-दान।
वृथा कोमल पत्तों को तोड़।
पथिक करता है तरु-अपमान॥3॥

ओस की बूँदों को ले रात।
सजाती है तरु को कर प्यारे।
दिवस लेकर किरणों को साथ।
छीन लेता है मुक्ता-हार॥4॥

प्यारे से भर विलोक प्रियकान्ति।
पास आता है मत्त पतंग।
जलाकर कर देता है राख।
स्नेहमय दीपक भरित-उमंग॥5॥

बोल तक सका नहीं मुँह खोल।
दूर ही रहा सब दिनों सूर।
रागमय ऊषा कर अनुराग।
माँग में भरती है सिन्दूर॥6॥

पपीहा तज वसुधा का वारि।
ताकता है जलधार की ओर।
बरसकर बहुधा उपल-समूह।
डराता है घन कर रव घोर॥7॥

पला सब दिन कोकिल का वंश।
काक के कुल का पाकर प्यारे।
आज तक कोकिल-कुल-संभूत।
कर सका कौन काक उपकार॥8॥

(2)
विचित्र विधन

मिला जिससे जीवन का दान।
सतत कर उसी तेल का नाश।
निज प्रिया बत्ती को कर दग्धा।
दीप पाता है परम प्रकाश॥1॥

जी सके जिनसे पा रवि ज्योति।
उन्हीं पत्रों के हो प्रतिकूल।
विटप बनते हैं बहु छविधाम।
लाभ कर नूतन दल-फल-फूल॥2॥

हुआ है जिससे जिसका जन्म।
जो बना जीवन शान्ति-निकुंज।
धूल में उसी बीज को मिला।
अंकुरित होता है तरुपुंज॥3॥

छीनकर तारक-चय की कांति।
भव भरित तम पर कर पविपात।
सहस कर से हर विधु का तेज।
भानु पाता है प्रिय अवदात॥4॥

कुमुद-कुल को कर कान्ति-विहीन।
कौमुदी-उर पर कर आघात।
हरण कर रजनी का सर्वस्व।
प्रभा पाता है दिव्य प्रभात॥5॥

वायु की शीतलता को छीन।
आपको देकर बहु संताप।
दिशाओं में भर पावक पुंज।
प्रबल बनता है तप उत्ताकप॥6॥

अवनि में नभतल में भर धूल।
द्रुमावलि को दे-दे बहु दंड।
हरण करके अगणित प्रिय प्राण।
वात बनता है परम प्रचंड॥7॥

दमन करके दल दुर्दमनीय।
विपुल नृप-भुज-बल का बन काल।
लोक में भर प्रभूत आतंक।
प्रबलतम बनता है भूपाल॥8॥

(3)
राजसत्ता

मुकुट होता है शोणित-सिक्त।
राज-पद नर-कपाल का ओक।
घरों में भरता है तमपुंज।
राजसिंहासन का आलोक॥1॥

बंधुओं का कर शोणित-पान।
नहीं उसको होता है क्षोभ।
पिता का करता है बलिदान।
किसी का राज्य-लाभ का लोभ॥2॥

झूमता चलता है जिस काल।
काँपता है अचला सब अंग।
मसलता है जन-मानस-पाल
र्श्नि

दमन का बरसे ज्वलदंगार।
मनुज-कुल का होता है लोप।
धारातल को करता है भस्म।
प्रलय-पावक-समान नृप-कोप॥4॥